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उत्तरकाण्ड

जिसको यह बड़ा गुमान है कि मैं बड़ा जाननेवाला हूँ, तुलसी की समझ में, वह बड़ा गवाँर है। जानकीनाथ को अगर नहीं जाना तो जाननेवाला कहलाते हुए भी क्या जाना है?

[ १८२ ]

तिन्ह तेँ खर सूकर खान भले, जड़ताबस ते न कहैं कछु वै।
तुलसी जेहि राम सों नेह नहीं सो सही पसु पूँछ बिखान न द्वै॥
जननी कत भार मुई दस मास, भई किन बाँझ, गई किन च्वै*।
जरि जाउ सो जीवन, जानकीनाथ! जियै† जग में तुम्हरो बिनु ह्वै॥

अर्थ―उनसे गधे, सुअर और कुत्ते अच्छे हैं; क्योंकि जड़ होने के कारण वे कुछ कहते तो नहीं हैं। तुलसी कहते हैं कि जिसे राम से प्रीति नहीं है वह अवश्य पशु है यद्यपि उसके पूँछ और सींग नहीं। उसको पैदा करनेवाली माँ दस मास तक बोझा लादकर क्यों (व्यर्थ) मरी। अच्छा होता कि वह बाँझ होती या गर्भपात हो जाता। उसका जीवन हो जल जावे जो हे जानकीनाथ! जग में बिना तुम्हारा होकर रहता है।

[ १८३ ]

गज-बाजि-घटा भले भूरि भटा, बनिता सुत भौंह तक सब वै।
धरनी धन धाम सरीर भलो, सुरलोकहु चाहि इहै‡ सुख स्वै॥
सब फोकट साटक है तुलसी, अपनो न कछु सपनो दिन द्वै।
जरि जाउ सो जीवन जानकीनाथ! जिये जग में तुम्हरो बिन ह्वै॥

अर्थ―हाथी-घोड़ों की घटा (समूह) है, बड़े वीर हैं, स्त्री-पुत्र सब कोई मुँह देखता है, पृथ्वी, धन, घर, शरीर सब अच्छा है, जो सुख वर्ग में है वह यहीं विद्यमान है परंतु तुलसीदास कहते हैं कि यह सब फोकट साटक (फ़िज़ूल और असार) है। यह जीवन दो दिन का सपना है। उसका जीवन जल जावे जो जग में बिना तुम्हारा होकर रहता है।



*पाठान्तर―स्वै।
†पाठान्तर―रहे।
‡पाठान्तर―चाहिय है।