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उत्तरकाण्ड

अर्थ―द्वार पर बहुत से हाथी झूमें जिनके बड़ी बड़ी ज़ञ्जीरें पड़ी हों और मद चूता हो, तो क्या? अच्छे तेज़ घोड़े, बड़े चञ्चल और पवनगामी हों, (तो क्या?) घर के भीतर चन्द्र के से मुखवाली स्त्री हुई और बाहर बड़े बड़े राजा हुए, तो क्या? ऐसे हुए भी तो क्या, हे तुलसी! जो रामचन्द्र के रङ्ग में न रँगे गये।

[ १८७ ]

राज सुरेस पचासक को, बिधि के कर को जो पटो लिखि पाये।
पूत सपूत, पुनीत प्रिया, निज सुंदरता रति को मद नाये॥
सम्पति सिद्धि सबै तुलसी, मन की मनसा चितवैं चित लाये।
जानकी-जीवन जाने बिना जन ऐसेऊ जीवन जीव कहाये॥

अर्थ―पचासों इन्द्र के राज का यदि ब्रह्मा के हाथ का लिखा पट्टा पा गये तो क्या? सपूत पुत्र मार (पतिव्रता) स्त्री, जिसकी सुन्दरता के आगे रति का गर्व भी जाता रहा हो, पाने से क्या? सब सम्पदा और सिद्धि मन की इच्छा (चित्त) लगाये राह देखती हो (कि कब बुलावा हो कब जाऊँ) तो क्या? रामचन्द्र के जाने बिना, उत्पन्न होकर और जीते हुए भी ऐसे पुरुष नहीं जीते।

[ १८८ ]

कृसगात ललात जो रोटिन को, घर बात घरे* खुरपा खरिया।
तिन सोने के मेरु से ढेर लहे, मन तौ न भरो घर पै भरिया॥
तुलसी दुख दुनो दसा दुहुँ देखि, कियो मुख दारिद को करिया।
तजि आस भो दास रघुप्पति को, दसरथ के दानि दया-दरिया॥

अर्थ―दुर्बलशरीर जिन्हें रोटियों के भी लालच थे, जिसके घर की पूँजी खुरपा और खरिया (जाला) ही थे, उनको यदि सोने का मेरु भी मिल गया तो घर तो भरा, पर मन न भरा। हे तुलसी! दोनों दशा देख, दूना दुःख हुआ। दरिद्र का मुँह काला किया, अर्थात् सन्तोष तभी हुमा जब प्राशा छोड़ दशरथ-कुमार, दया के दरिया (नदी) का दास हुआ।

शब्दार्थखरिया-जाली।


  • पाठान्तर―रवा।