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उत्तरकाण्ड


क्रूर कायर कपूत क्यों न हों, चाहे आधी कौड़ी काम के भी न हों अथवा रामनाम ने तुलसी ऐसे मनुष्य को ललित और ललाम सा कर दिया, जो कौड़ी काम का न था उसे लाखों के मोल का कर दिया।

[२११]


सब-अंग-हीन, सब-साधन-विहीन, मन
बचन मलीन, हीन कुल करतूति हौं*।
बुद्धि-बल-हीन, भाव-भगति-विहीन, दीन,
गुन-ज्ञान-हीन, हीन-भाग हू विभूति हौं॥
तुलसी गरीब की गई-बहोर राम नाम,
जाहि जपि जीह राम हू को बैठो धूति हौं।
प्रीति राम नाम सों, प्रतीति रामनाम की,
प्रसाद रामनाम के पसारि पायँ सूति हौं†॥

अर्थ—सब अङ्गों से हीन हूँ और साधन से रहित हूँ, मन और वचन दोनों मैले हैं और अपने कुल के कर्तव्यों अथवा कुल और कर्चव्य (कर्मादिक) से भी हीन हूँ। बुद्धि और बल दोनों से रहित हूँ, न मुझमें भाव है न भक्ति, दीन हूँ, न गुण है न ज्ञान, न भाग्य ही अच्छा है न विभूति ही है। हे तुलसी! गरीब की गई बहोरने (लौटाने) वाला रामनाम है कि जिसे जोभ से जपकर पवित्र हो बैठा हूँ अथवा राम को भी धूति छखने बैठा हूँ। मेरी प्रीति रामनाम से है, राम ही का भरोसा है। रामनाम के प्रसाद से पैर पसारकर सोता हूँ। अथवा उसके एवज़ में केवल प्रसाद रूप पैर दबाना चाहता हूँ।

[२१२]


मेरे जानि जब तें हौं जीव ह्वै जनम्यों जग,
तब तें बिसाह्यो दाम लोह कोह काम को।
मन तिनहीं की सेवा, तिनहीं सोँ भाव नीको,
बचन बनाइ कहौं ‘हौं गुलाम राम को’॥



* पाटान्तर—धूति हों, अर्थ—धोता हूँ, छलता हूँ।
†पाठान्तर—सूति हों, अर्थ—सोता हूँ, दबासा हूँ।