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कवितावली


नाथ हू न अपनायो, लोक झूठी है परी, पै
प्रभु हूँ तें प्रवल प्रताप प्रभु नाम को।
आपनी भलाई भलो कीजै तो भलाई, न तो
तुलसी को खुलैगो खजानो खोटे दाम को॥

अर्थ—मेरी समझ में जब से मैं उत्पन्न हुआ हूँ तब से लोभ काम और क्रोध ही को बिसाहा (मोल लिया)। उन्हीं में मन लगा है, उन्हों की सेवा की है, उन्हीं का भाव है, बात बना-बनाकर कहता हूँ कि राम ही का गुलाम हूँ। नाथ ने भी न अपनाया और संसार भी झूठा हो गया अथवा राम का कहलाता था यह बात भी संसार में झूठी हो गई। परंतु प्रभु से भी प्रभु के नाम का प्रताप अधिक है, अपनी भलाई से भला कीजिए तो अच्छा है, नहीं तो तुलसी का खजाना खुलेगा जो खोटे दामों ही का है अर्थात् पाप से भरा है।

[२१३]


जोग न बिराग जप जाग तप त्याग ब्रत,
तीरथ न धर्म जानों बेद बिधि किमि है।
तुलसी सो पोच न भयो है, नहिं ह्वैहै कहूँ,
सोचैं सब याके अघ कैसे प्रभु छमिहै॥
मेरे तौ न डरु रघुबीर सुनौ साँची कहौं,
खल अनखैहैं, तुम्हें सज्जन न गमिहै।
भले सुकृती के संग मोहिँँ तुला तौलिए तौ,
नाम के प्रसाद भार मेरी ओर नमिहै॥

अर्थ—न मुझे योग आता है, न मेरे वैराग्य है, न जप न तप न त्याग है, न व्रत है, न मैंने तीर्थ किया है, न मैं धर्म जानता हूँ, न यह जानता हूँ कि वेद की क्या रीति है। तुलसी सा कमीना न है, न हुआ है, न होगा। सब इसके लिए सोच करते हैं कि इसके पापों को प्रभु कैसे क्षमा करेंगे। हे रघुवीर! सुनो, सच कहता हूँ, मुझे तो कुछ डर नहीं है, क्योंकि खल अनखायँगे और सज्जन लोग भी