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कवितावली


बारे तेँ ललात बिललात द्वार द्वार दीन,
जानत हौं चारि फल चारि ही चनक को॥
तुलसी सो साहिब समर्थ को सुसेवक है,
सुनत सिहात सोच बिधि हू गलक को।
नाम, राम! रावरो सयानो किधौं बाबरो,
जो करत गिरी तेँ गरु तृन तेँ तनक को॥

अर्थमँगतों के कुल में जनमा हूँ। जन्म का बधावा न बजा, जन्म सुनकर माता-पिता दोनों को पाप का परिताप हुआ। छोटे से, द्वार द्वार ललचाता रोता फिरता हूँ, दीन हूँ और चार चनों ही को चारों फल जानता हूँ अर्थात् चार चने मिल जाने से जानता हूँ कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों फल मिल गये। सो तुलसी समर्थ साहब का अच्छा सेवक है, जिससे की हुई सेवक की प्रशंसा को सुनकर ब्रह्मा से गणितज्ञ को भी शोच होता है अथवा जिसे सुनकर ब्रह्मा सराहना करते हैं और शोच करने लगते हैं कि यह इतना बड़ा कैसे हो गया। हे राम! आपका नाम सधाना है या बावला है जो तिनके से भी हलके को पहाड़ सा भारी करता है।

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बेद हु पुरान कही, लोकहू बिलोकियत,
रामनाम ही सोँ रीझे सकल भलाई है।
कासी हू मरत उपदेसत महेस सोई,
साधना अनेक चितई न चित लाई है॥
छाछी को ललात जे ते रामनाम के प्रसाद
खात खुनसात सौँधे दूध की मलाई है।
रामराज सुनियत राजनीति की अवधि,
नाम राम! रावरे तौ चाम की चलाई है॥

अर्थवेद और पुराण में भी लिखा है और संसार में देखने में भी आता है कि सब भलाई रामनाम पर रीझती है अथवा रामनाम के रीझने पर सब भलाई होती है। काशी मरने के समय भी शिवजी यही उपदेश करते हैं और अनेक