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कवितावली


जैबे को अनेक टेक, एक टेक ह्वैबे की,
जो पेट-प्रिय-पूत-हित रामनाम लेतु है॥

अर्थ—मोह के मद से मस्त और कुबुद्धि होकर कुलटा स्त्री रूपी कुमति से-वेद और लोक-लाज को छोड़कर-प्रीति लगाई है, सो आकरा (गहरा, निपट) अचेत है, जो जी चाहता है सो करता है, जो मुँह में आता है सो बकता है, किसी को कुछ नहीं सहता, बड़ा सरकस है। तुलसी अजामिल से भी अधिक नीच है और उस पर भी कलियुग, जो कपट का घर है, सहाय है। जाने की हज़ार बात है, होने की एक, जो पेट-रूपी प्रिय पुत्र के प्रेम से रामनाम लेता है।

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जागिए न सोइए बिगोइए जनम जाय,
दुख रोग रोइए कलेस कोह काम को।
राजा रङ्क, रागी औ बिरागी, भृरि भागी ये
अभागी जीव जरत, प्रभाव कलि वाम को॥
तुलसी कबंध कैसो धाइबो बिचारु, अंध!*
धंध देखियत जग सोच परिनाम को।
सोइबो जो राम के सनेह की समाधि-सुख,
जागिबो जो जी जपै नीके रामनाम को।

अर्थ—सचेत रहिए, साइए नहीं, जन्म को न बिगाड़िए, नहीं तो क्रोध और काम के दुःख से दिन भर रोया कीजिएगा। राजा दरिद्रो है, वैरागी रागी (भोग करनेवाले) हैं, बड़े भाग्यशाली भी अभागे हैं, इन सबसे जी जलता है, अथवा राजा, दरिद्री, वैरागी, रागी, भाग्यवान, अभागे सब जीव कलि के प्रभाव से जलते रहते हैं। यह सब कुटिल कलि का प्रभाव है। विचारकर देखने से ज्ञात होता है कि सिर कटे धड़ के समान बेसुध जगत् दौड़ता है, अँधाधुन्ध जगत् में दिखाई देता है अथवा हे अन्धे! (झूठे) जग के धन्धे को देख । (उसमें मन लगाते हैं) यह देखकर तुलसी को परिनाम का सोच है। सेना वही है जिससे राम के प्रेम की समाधि हो और जागना वही अच्छा है जो रामनाम को जीभ जपती रहे।


पाठान्तर—अंध।