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उत्तरकाण्ड

सन्दर करनी की। राम-कथा को भी रचकर वर्णन न किया, न प्रह्लाद या ध्रुव की कथा को ही सुना। अब बुढ़ापा आया और गात जल गये, परन्तु मन ने ग्लानि मानकर अपनी कुबानि को न छोड़ा। तुलसी ने भलाई के लिए ठीक किया कि दो अक्षर (राम नाम) के अवलम्ब को उर में धारण किया।

[ २३१ ]

राम विहाय 'मरा' जपते बिगरी सुधरी कवि-कोकिल हू की।
नामहिं ते गज की, गनिका की, अजामिल की चलिगै चलचूकी॥
नाम प्रताप बड़े कुसमाज बजाइ रही पति पांडु-वधू की।
ताको भलो अजहूँ तुलसी जेहि प्रीति प्रतीति है आखर दू की॥

अर्थ―राम को छोड़कर 'मरा' जपने से कवि-कोकिल (वाल्मीकि) की बिगड़ी भी बन गई। नाम ही से गज, गणिका, अजामिल की भूल-चूक चली गई (माफ़ हो गई)। नाम के प्रताप से बुरी सभा में द्रौपदी की जाती हुई लाज रह गई अथवा कुसमाज में बजाय (डंके की चोट) रही। तुलसी! जिसे दो अक्षर पर प्रेम और उनपर भरोसा है उसका आज भी भला है।

[ २३२ ]

नाम अजामिल से खल तारन, तारन बारन बार बधू को।
नाम हरे प्रहलाद विषाद, पिता भय साँसति सागर सको॥
नाम सों प्रीति-प्रतीति विहीन गिल्यो कलिकाल कराल न चूको।
राखिहैं राम सो जासु हिये तुलसी हुलसै बल आखर दू को॥

अर्थ―नाम ने अजामिल से खल को भी तार दिया और वारण (हाथी) तथा गणिका का भी तारनेवाला नाम ही है। नाम ने प्रह्लाद के दुःख को हुरा, जिससे पिता की साँसति (ताड़ना) और भय का सागर सूख गया। रामनाम के प्रेम और विश्वास से जो विहीन है उससे गिलो (झगड़ा) करने में कलिकाल नहीं चूकता अथवा कलिकाल रामनाम से विहीन को गिला (लील लो), मत चूको। हे तुलसी! राम उसे रखेंगे जिसका हृदय दो अक्षरों (राम) के नाम के बल पर प्रसन्न होता है।