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कवितावली

कवितात्रलो का स्वभाव ही प्रसन्न रहने का है वह गुस्सा होने पर भी प्रसन्न हुए होगें। आपको राम ही की दुहाई है, प्रसन्न हूजिए। सवैया ... [२७] बेष विराग को, राग भरो मनु, माय ! कहीं सति भाव हो तोसों। तेरे ही नाथ को नाम लै बेचिहौं पातकी पामर प्राननि पोस॥ एते बड़े अपराधी अघी कहुँ, तैं कहुछ अंब ! कि मेरो तू भोसों। स्वारथ को, परमारथ को, परिपूरन भो फिरि घाटि न हो सों॥ अर्थ-मैं तुमसे मन का भाव सत्य कहता हूँ कि मन राग से भरा है यद्यपि वेष वैरागियों का सा है। यद्यपि पापी और नीच हूँ परन्तु प्रापही ( सीताजी) के नाथ का नाम बेचकर प्राणों को बचाता हूँ अर्थात् उसी से जीवन निर्वाह होता है। इतने बड़े अपराधी और पापी को भी हे माँ ! तुम मुझसे कहो कि "तू मेरा है" तो परमार्थ और स्वार्थ से पूर्ण हो जाऊँ और कुछ घटो फिर कभी न हो ॥ घनाक्षरी [२८०] जहाँ बालमीकि भये व्याध ते मुनीन्द्र साधु, 'मरा मरा', जपे सुनि सिष रिषि सात की। सीय को निवास लव-कुश को जनमथल, तुलसी छुवत छाँह ताप गरै गात की ॥ बिदप महीप सुर सरित समीप सोहै, सीताबट पेखत पुनीत होत पातकी । बारिपुर दिगपुर। बीच बिलसति भूमि, अंकित जो जानकी चरन-जलजात की।

  • पाठान्तर-अधिक हूँ ते कहा अब कि।

+काशी और प्रयाग के बीच में सीतामढ़ी के नाम से यह स्थान प्रसिद्ध बताया जाता है। वारिपुर और दिगपुर गाँव के नाम हैं।