देवधुनी पास मुनिबास श्रीनिवास जहाँ,
प्राकृत हूँ बट बूट बसत पुरारि हैं।
जोग जप जाग को बिराग को पुनीत पीठ.
रागनि पै सीठि, डीठि बाहरी निहारिहैं॥
'आयसु' 'आदेस' 'बाबा' 'भलो भलो' 'भाव सिद्ध',
तुलसी बिचारि जोगी कहत पुकारि हैं।
रामभगतन को तौ कामतरू तें अधिक,
सीयबट सेए करतल फल चारि हैं॥
अर्थ—देव धुनी (गंगाजी) के पास जहाँ मुनियों का वास है और श्री (शोमा अथवा जानकी) का निवासस्थान है, जिस वट के वृक्ष में महादेव सहज ही निवास करते हैं, जो योग-जप-यज्ञ- वैराग्य का पवित्र स्थान है परन्तु रागियों को सीठा लगता है जो बाहरी दृष्टि से उसे देखते हैं। हे तुलसी! यहाँ आज्ञा को पूर्ण करनेवाले भले भले बाबू बसते हैं, यह बात योगी पुकार-पुकारकर कहते हैं अथवा यहाँ के योगी सबसे 'आयसु' 'आदेश' आदि शब्दों को कहकर बात करते हैं। रामभक्तों को कामतरु से भी अधिक सीता-वट है जिसकी सेवा करने से चारों फल करतलगत होते अर्थात् मिलते हैं।
जहाँ बन पावनो सुहावनो बिहंग मृग,
देखि अति लागत आनंद खेत खूँँट सो।
सीता-राम-लषन-निवास, बास मुनिन को,
सिद्ध साधु साधक सबै बिबेक बृट सो॥
भरना झरत झारि सीतल पुनीत बारि,
मंदाकिनी मंजुल महेस जटा-जूट सो।
तुलसी जौ राम सों सनेह साँचो चाहिए
तो सेइए सनेह सों बिचित्र चित्रकूट सो।