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कवितावली

कावितावली कोहि मानहा सुखना, उन लकि ताकत है कवि कोकी। मालेसी तुलली हनुमान हिये जग जाति जराय की चौकी ॥ अर्थ-बसन्त में पल्लास के फूलों का वर्णन है । पहाड़ को नष्ट करनेवाली आग अच्छी तरह से लगी जैसे हनुमान ने लङ्का में लगाई थी। सुन्दर पशु चारों ओर भाग चले, जैसे लङ्का में राक्षस अग्नि की मालाओं से भागते थे। बड़ी सुषमा क्यों. कर वर्णन की जावे, उपमा के लिए कवि कब से ताक रहा है अथवा कवि-कोकिल ताक रहा है। तुलसी कहते हैं कि वह ऐसी थी मानों हनुमान के गले में जगत् को जीतनेवाली जड़ाऊ चौकी शोभायमान थी। शब्दार्थ-खरखाकी =खर (तृण) खानेवाली अग्नि । तौकी = तपी हुई। कौकी = कब से अथवा (कोकी पाठ होने से) कोकिल । [२८६ ] देव कहें अपनी अपनी अवलोकन तीरथराज चलो रे। देखि मिटै अपराध अगाध, निमजत साधु-समाज भलो रे ॥ सोहै सितासित को मिलिबो, तुलसी हुललै हिय हेरि हलो रे। मानो हरे तृन चारु चरै' बगरै सुरधेनु के धौल कलारे ॥ अर्थ-देव तो अपनी-अपनी कहते हैं परन्तु तीर्थराज देखने को चलो, अथवा देवता अपनी-अपनी ( आपस में ) कहते हैं कि प्रयाग देखने चलो, जिसे देखकर अगाध पाप दूर हो जावेंगे। जहाँ अच्छा साधु-समाज नहाता है, जहाँ सफ़ेद और काले पानी (गङ्गा और यमुना) का मिलना ऐसा शोभा देवा है कि तुलसी का हृदय प्रसन्न होकर हिलोरें लेता है मानों सफ़ेद सुरधेनु की कलोरें ( ओसर गायें) फैली हुई सुन्दर हरी-हरी घास चर रही हैं। [२८७ ] देवनदी कहँ जो जन जान किये मनसा कुल कोटि उधारे । देखि चले झगरे सुरनारि, सुरेस बनाइ बिमान सँवारे ॥ पूजा को साज बिरंचि रचैं, तुलसी जे महातम जाननहारे । ओक की नींव परी हरिलोक बिलोकत गंग-तरंग तिहारे ॥