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कवितावली


से दबाऊँ! यदि ईश हुआ तो शाश पर रक्खूँगा परन्तु डर है कि प्रभु को बनाबरी करके बड़े दोष से रहूँगा अर्थात महादेव होकर तुमको सिर पर रखना पड़ेगा, इससे यह दोष है कि महादेव मेरे प्रभु हैं उनकी बराबरी होती है। चाहे जितनी बेर शरीर धारण करूँ, रघुवीर की सेवा करके तेरे किनारे रहूँगा। हेगङ्गा! हाथ जोड़ तेरी विनती करता हूँ फिर दोष न मिले सो कहूँगा।

[२९०]
कवित्त


लालची ललात, बिललात द्वार-द्वार दीन,
बदन मलीन, मन मिटै न बिसूरना।
ताकत सराध कै बिबाह कै उछाह कछु,
डोलै लोल बूझत सबद ढोल तूरना॥
प्यासे हू न पावै बारि, भूखे न चनक चारि,
चाहत अहार न पहार दारि करना*।
सोक को अगार दुख-भार-भरौ तौ लौं जन
जौ लौं देवी द्रवै न भवानी† अन्नपूरना॥

अर्थ—लालचा मन ललचाता है और द्वार-द्वार पर दीन होकर मैला बदन करके पुकारता है परन्तु उसका भटकना नहीं जाता। श्राद्ध, विवाह या किसी उत्सव की इच्छा करता रहता है और ढोल और तुरई की आवाज़ को सुनकर पूछता, लोभी बना फिरता रहता है, प्यासा पानी नहीं पाता, न भूखा चार चना, जो अन्न के पहाड़ माँगता है उसे दाल का दाना भी नहीं मिलता। शोक का घर रहता है और दुःख का भार उस समय तक उठता रहता है जब तक भवानी अन्नपूर्णा देवी प्रसन्न नहीं होतीं।

छप्पै
[२९१]

भस्म अंग मर्दन अनंग, संतत असंगहर।

सीस गंग, गिरिजा अधंग, भूषन भुजंगबर॥


*पठान्तर—चाहत अहार ते पहार डारि धूरना।
†पाठान्तर—जौलौं देवी देवी जी द्रवै नहीं।