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उत्तरकाण्ड

अर्थ-तुलसीदास कहते हैं कि हे मन्द ! ऋत्तों के साथ, सय को दूर करनेवाले, भीष्म-रूप, डरानेवाले और अब के घर, दुष्टों को शेररूप प्रदीत होनेवाले और भूनि को धारण करनेवाली, प्रकाशमान, साया और खाक का प्राभूप धारण करनेवाले, सुन्दर साँप को धारण करनेवाले, भव्य ( कल्याण-स्वमर ) भाव को चाहनेवाले, संसार के ईश, संसार के नाश करनेवाले, बड़े भाग्यवाले, भैरव, कुचाग को मिटानेवाले ( मृत्युञ्जय जप द्वारा), सेवक का पालन करनेवाले, भारतीवदन (सरस्वती जिनके मुख-स्वरूप हैं ), विष खानेवाले, चन्द्रमा, सूर्य और अग्निरूप नेत्रवान्ले हैं, ऐसे भद्र- सदन ( कल्याण के घर ) काम को नाश करनकाले का भजन क्यों नहीं करता ? सवैया नाँगा फिरै कहै माँगतो देखि "न खाँगो कछ,जनि माँगिएथोरो। रॉकनि नाकप रीमि कर, तुलसी जग जो जुरै जाचक जोरो ॥ "नाक सवारत आयो हैं। नाकहि,नाहिँ पिनाकिहि ने निहोरो। ब्रह्म कहै "गिरिजा ! सिखवा, पति रावरो दानि है बावरोभारा'। अर्थ-नङ्गा तो फिरता है परन्तु भिखारी देखकर कहता है कि देने में हटूंगा नहीं, थोड़ा मत माँगा, रीझकर गरीबों को इन्द्र करता है, हे तुलसी ! जहाँ तक जोरे जुड़ते हैं मांगनेवालों को जोड़ता है ( इकट्ठा करता है)। स्वर्ग ही संभालता हुआ (बनाता हुआ) मना करने को आया हूँ अथवा नाक में दम आ गया है, पिनाकी (महादेव ) कुछ निहोरा नहीं मानते हैं, ब्रह्मा पार्वती से कहते हैं कि अपने पति को समझाओ, वह तो दान देने में बावला और भोरा है। [२६] बिष-पावक, ब्याल कराल, गरे, सरनागत तो तिहुँ तापन डाढ़े। भूत बैताल सखा, भव नाम, दलै पल में भव के भय गाढ़े ॥ तुलसीस दरिद्र-सिरोमनि सो सुमिरे दुख-दारिद होहि न ठाढ़े। भान में भाँग, धतूरोई आँगन, नोंगे के आगे हैं माँगने बाढ़े ॥

  • पाठान्तर-कपाल।