पृष्ठ:कवितावली.pdf/१९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१७२
कवितावली

उतावला ___ .. विकासाला, अश्या कि नेत्र सो विष (सण्ठ में), मचानक सी ( गलों में है, परन्तु शरणागल के तीन ताओं सार । भूम-प्रेत जला हैं, भान नास है, परन्तु पल में संसार के बाद दुःखों करता है, तुलसी का इंश दरिद्रियों का शिरोमणि है, परन्तु उसके सुमिरने से दुःख और दरिद्रता बड़ी नहीं रहती, घर में भाग और आँन में कम ही हैं परन्तु नङ्गे के सामने मांगने- वाले बढ़ते जाते हैं। [२८] सीस बलै बरदा, बरदानि, बढ्यो बरदा, घरन्यौ बरदा है। धाम धतूरो, विभूति को कूरो, निवास तहाँ सब लै मरे दाहै ॥ ब्याली कपात्री है ख्याली, चार दिसि भांग की टाटिन को परदा है। रॉक-रि रोमनि काकिनिभाग* बिलोकत लोकप को करदा है। अर्थ-वर देनेवाले शिव के शीश (सिर ) पर वर देनेवाली नदी है, बैल पर सवार है, और स्त्री भी जिसकी वर देनेवाली है, घर में जिसके धतूरा है और विभूति (सम्पदा) जिसकी कूड़ा है। निवास वहाँ है जहाँ सबको ले जाकर (मुरदा) जलाया जाता है अर्थात श्मशान, साँप और कपाल धारण किये है और बड़ा खिलाड़ी है, जिसके घर का पर्दा माँग की टट्टियों का है, दरिद्रियों का सिरताज है, कौड़ी का जिनका भाग है अर्थात् अवि दरिद्री है परन्तु देखते हो (कर दाहै) दिकपालों का हाथ जलाता है अर्थात् दान में जिसे दिकपाल भी नहीं पाते अथवा देखते ही कौन दिकपालों का करदा (करने देनेवाला) है अर्थात् देखते ही भक्त इतना बड़ा हो जाता है कि लोक पालों की भी कदर नहीं करता, अथवा दिक्पालों को ( करदा-धूर्त ) सा देखता है अथवा लोकपालों को दान में (करदा ) खाक समझता है। दानी जो चारि पदारथ को त्रिपुरारि ति पुर में सिर टीको । भारो भलो भले भाव को भूखो, भलाई कियो सुमिरे तुलसी को॥

  • पाठान्तर- काकिणि भाक।

पाठान्तर-भोरो।