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उत्तरकाण्ड

पाहि हनुमान ! करुनानिधान राम पाहि ।। कासी कामधेनु कलि कुहत कसाई है। अर्थ-काशी मङ्गल की ढेर है और परमार्थ की खानि है, जिसको ब्रह्मा ने अच्छी तरह रचकर बनाया और केशव ने बसाया है, प्रलय के समय भी उसे महादेवजी ने शूल पर धारण करके रक्खा था, नीच ( कलि ) उसे भी गिराना चाहता है, मानों नीच का काल आ गया है। राजा परीक्षित ने इसे छोड़कर, कलि पर कृपालु होकर, इस खल का भला किया था सो भलाई मानों उसने खो डाली, हे हनुमान् ! करुणा के घर ! हे राम! काशो की रक्षा करो, इस कामधेनु को कलियुग-रूपी कसाई काटे डालता है। शब्दार्थ-कुहत - कहरत । [ ३२४ ] विरची बिरंचि की बसति विस्वनाथ की जो, प्रानहूँ तें प्यारी पुरी केसब कृपाल की। ज्योति-रूप-लिंग-मई, अगनित-लिंग-मई, मोक्ष-बितरनिक बिदरनि जग-जाल की ।। देवी देव देवसरि सिद्ध मुनिबर बास, लोपति बिलोकत कुलिपि भेड़े भाल की हा हा करै तुलसी दयानिधान राम ! ऐसी, कासी की कदर्थना कराल कलिकाल की। अर्थ-ब्रह्मा की रची, विश्वनाथ की बस्ती, जो दयानिधि केशव को प्राण से भी प्यारी है, ज्योति-रूप लिङ्ग ( विश्वनाथ ) जहाँ विराजमान है और जहाँ अनेक लिङ्गों की स्थापना है, मोक्ष को देनेवाली, जो जगत् के जाल को विदारण करनेवाली है, देव, देवी, गङ्गा, सिद्ध और मुनियों का जहाँ वास है, जो काशी देखते ही भाग्य के लिखे खोट को नष्ट कर देती है, तुलसी हा हा खाता है (निहोरा करता है) कि हे कृपानिधान राम ! कराल कलिकाल ने उसी काशो की यह दुर्दशा कर डाली है।

  • पान्तर-सा छषि तरणि ।