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कवितावली
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आस्त्रम बरन कलि-बिबस विकल भये,
निज-निज-मरजाद मोटरो सी डार दी।
संकर सरोष महामारिही तेँ जानियत,
साहिब सरोष दुनी दिन-दिन दारदी॥
नारि-नर आरत पुकारत, सुनै न कोउ,
काहू देवतनि मिलि मोटी मूठि मार दी।
तुलसी संभीत-पाल सुमिरे कृपालु राम,
समय सुकरुना सराहि सनकार दी॥

अर्थ—(चारों) आश्रम और (चारों) वर्ग कलियुग के कारण भ्रष्ट हो गये, सबने इस युग में अपनी-अपनी मर्यादा को बोझ समझकर फेंक दिया, महामारी होने से प्रतीत होता है कि महादेव क्रोधित हैं और साहेब के क्रोधित होने से दिन-दिन दूनी उनकी स्त्री क्रोधित हैं-अथवा साहब के क्रोध से दुनिया में दिन-दिन दूना दरिद्र हो गया है-स्त्री-पुरुष बड़े विकल होकर पुकारते हैं परन्तु कोई नहीं सुनता है, देवताओं ने भी मिलकर मुट्ठी सी मार ली है (अर्थात् चुप हो गये हैं, अपने हाथ बन्द कर लिये हैं अथवा मूँठ मार दी है अर्थात् जादू डाल दिया है)! तुलसी कहते हैं कि ऐसे समय में भी भयभीत को पालनेवाले दयालु श्रीरामचन्द्रजी को जब याद किया तभी उन्होंने दया को सनकार दिया अर्थात् उस पर दया की, उसे बचा लिया।

इति उत्तरकाण्ड
इति श्रीगोस्वामीतुलसीदासकृत कवितावली रामायण समाप्त


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