पृष्ठ:कवितावली.pdf/२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
[ १७ ]

सब छन्द मानस के पीछे के बने नहीं प्रतीत होते । एक तो यही समझ में नहीं प्राता कि मानस के बन चुकने के पीछे ऐसे छोटे ग्रन्थ के रचने ही से तुलसीदास का क्या प्रयोजन था। मानस जैसे अन्य से उनका यश दूर दूर तक फैल चुका था। फिर उनके होते हुए कवितावली ऐसे अन्य का निर्माण करके क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है? हाँ, यह समझ में आ सकता है कि जब कवितावली आदि छोटे प्रन्थों से तुलसीदास की तृप्ति न हुई होगी तब अपनी शान्ति स्थिर करने को उन्होंने मानस का निर्माण किया हो। कवितावली के निम्नलिखित छन्द से भी यही अनुमान किया जा सकता है। पाइ सुदेह बिमोह-नदी-तानी, न लही करनी न कर की। राम कथा घरनी न बनाइ, सनी न कथा प्रहलाद न ध्र की ।। अब जोर जरा जरि गात गयो, मन मानि गलानि कुबानि न मूकी । नीके के ठीक दई तुलसी, अवलंब बड़ी उर श्राखर दू की । पढ़ने से रामचरितमानस प्रौढ़ अवस्था का अन्ध और कवितावली के अनेक छन्द उससे बहुत पहले के मालूम होते हैं। उदाहरणार्थ केवट के नाव लाने और बिना पग धोये उतारने से इनकार करने के अवसर पर रामचरित मानस और कवितावली में कही हुई कविता को देखिए । कवितावली में लिखा है- x x बरु मारिए मोहिं, बिना पग धोये है नाथ न नाव चढ़ाइहौ जू । यह रामचन्द्र से केवट ने कहा है कि चाहे आप मार ही क्यों न डालें परन्तु बिना पग धोये नाव पर न चढ़ाऊँगा, परन्तु रामचरित-मानस में जब तुलसीदास में अनन्य भक्ति स्थिर हो चुकी थी तब अपने इष्टदेव की शान में केवट से ऐसी कड़ी बात कहलवाना उन्हें अनुचित प्रतीत हुआ। मानस में यही बात लक्ष्मण की ओर इंगित करके लिखी गई है- बरु तीर मारहु लखनु पै जब लगि म पाथ पखारिह, तब लगि न तुलसीदास माथ कृपालु पार उतारिहरें । यही गति परशुराम की कथा में है। यही बात 'नवरत्न' के रचयिताओं ने लङ्का- काण्ड में देखी है, जहाँ हनुमान की लड़ाई का ब्यौरेवार वर्णन है और श्रीरामचन्द्र की लड़ाई थोड़े ही में लिखी है। भरत की महिमा का वर्णन कवितावली में नहीं है। इस पर किसी-किसी को भ्रम हुआ कि कदाचित यह तुलसीदास का ग्रन्थ ही नहीं है। परन्तु यदि हमारा अनु-