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मान सही है कि इसके छन्द केवल मानस में सम्मिलित करने के लिए बनाये गये थे तो कुछ कथाओ पर छन्द न मिलने में कोई आश्चर्य नहीं। क्योंकि तुलसीदास को उनकी कथा चौपाई में ही लिखना मञ्जूर रहा होगा, इसलिए इस कथा के छन्द नहीं लिखे गये। अथवा जो छन्द लिखे गये होंगे वे रामचरित-मानस में ले लिये गये होंगे और कवितावली के लिए बाकी नहीं रहे।

रामचरित मानस और कवितावली की भाषा पर विचार करने से भी हमारे अनुमान की पुष्टि होती है। कवि की प्रारम्भिक अवस्था में शब्दाडम्पर पर उसका विशेष ध्यान रहा करता है। वह बड़े-बड़े क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग किया करता है या भाषा पर पूर्ण अधिकार न होने से शब्दों को तोड़-मरोड़कर उनका प्रयोग करता है। परन्तु जब उसका शब्द-कोष बढ़ जाता है, भाषा पर अधिकार जम जाता है तब वह शब्दों को छोड़कर भावों की ओर ध्यान देता है। इसी लिए प्रौढ़ावस्था की कविता में उच्च भाव और अर्थ-गाम्भीर्य्य पाये जाते हैं। कवितावली में शब्द बहुत तोड़े-मरोड़े हुए, अनेक भाषाओं से भरे गये हैं। उसके कवि का शब्द-कोष सङ्कीर्ण था। वह भाषा को बना-बनाकर लिखता था। तुकबन्दी और समस्यापूर्ति की ओर भी उसका ध्यान जाता था। मानस के तुलसीदास का शब्द-कोष विस्तीर्ण था। वे भाषा पर अधि- कार जमा चुके थे। शब्दों को तोड़ने-मरोड़ने की आवश्यकता उन्हें नहीं थी। समस्यापूर्ति से उनका ध्यान हट चुका था। रूपक बाँधने के लिए प्राकृतिक निरीक्षण से काम लिया जाता था न कि मनगढन्त ख़यालों से।

संक्षेपतः शब्दाडम्बर से हटकर मन अर्थ-गाम्भीर्य्य, उच्च भावों और शिलष्ट भाषा से महाकाव्य बनाने में लगा हुआ था। कवि की हीन दशा की गाथा समाप्त हो चुकी थी। समाज-सुधार ही लक्ष्य था। बुरा कहनेवालों को भी नमस्कार था। उन पर क्रोध न था। मन को पूर्ण शान्ति मिल चुकी थी। कवितावली में भी इन लक्षणों से युक्त छन्द मिलते हैं। ये प्रौढ़ावस्था के बने हैं। कदाचित मानस के साथ या उसके पीछे लिखे गये हों। परन्तु भाषा के देखने से इसमें कुछ सन्देह नहीं रह जाता कि कवितावली का एक बड़ा भाग मानस के पूर्व का है। वह कवि की प्रारम्भिक नहीं तो मध्यावस्था का अवश्य द्योतक है। अपने इस कथन के समर्थन में हम निम्न उदाहरण देते हैं—

उत्तरकाण्ड के छन्द नं० ११३, १५४, १५५, १५७, १५८, १६१, १६४, १६५, १६६, २३१, २३६।

उर्दू के शब्द—फ़हम, ख़लक़, जहाज़, फौ़ज, क़हर, निवाज़, दगा़बाज़, ,ग़ुलाम, खा़स, ख़सम, जहान इत्यादि।