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(७) खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि, वनिक को बविज न चाकर को चाकरी।
जीविका-विहीन लोग सीधमान सोच बस, कहैं एक एकन सौ "कहाँ जाइ, का करी"।
बेद हूँ पुरान कही, लोकहू बिलोकियत, साकरे सबै पै राम रावरे कृपा करी।
दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु ! दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी ॥

(क) कुल, करसूति, भूति, कीरति, सुरूप, गुन जोवन जुर जरत, परै न कल कही।
राज काज कुपथ कुसाज, भोग रोग ही के, वेद-बुध विद्या पाइ विवश बलकही।
गति तुलसीस की लखै न कोउ जो करत, पब्बइते छार, छारै पब्बइ पलकहीं।
कासों कीजै रोष ? दोष दीजै काहि ? पाहि राम ! कियो कलिकाल कुलि खलल खलकहीं ॥

(१) बबुर बहेरे को बनाइ बाग बाइयत, सँधिबे को साइ सुरतरु काटियत है।
गारी देत नीच हरिचन्द हू दधीचि हूँ को, आपने धना चबाइ हाथ चाटियत है।
श्राप महापातकी हँसत हरि हरहू को, आयु है प्रभागी भूरिभागी डाटियत है।
कलि को कलुष मन मलिन किये महत मसक की पांसुरी पयोधि पाटियत है।

उपर्युक्त सामान्य व्यवस्था के वर्णन के अतिरिक्त तुलसीदास ने कवितावली के उत्तर-काण्ड में १५ कवित्तों में काशी में महामारी का वर्णन किया है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि संग्रह संवत् १६७५ के पश्चात् किया गया है। आगरे में सन् १६१८ ईसवी अर्थात् संवत् १६७५ में महामारी थी और उसी समय के लगभग वह काशी में रही होगी।

उपर्युक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि उस समय समाज की बड़ी दीन और हीन अवस्था थी। न वर्णाश्रम-धर्म का पालन होता था और न कर्म था। प्रत्येक मनुष्य अपना-अपना पंथ चलाने को उतारू था। कोई किसी का आदर नहीं करता था। बदमाशों का ज़ोर था, धनवानों को शोच था। जीविका तो एक और रही, लोगों को भीख भी न मिलती थी। पण्डित लोग विवाद में समय बिताते थे। अकाल बारम्बार पड़ते थे। दरिद्रता संसार में छाई हुई थी। राजा कृपालुन था, राज-समाज छली था। बैरागी वेश-धारी रागी थे, गृहस्थों को भोग प्राप्त नहीं था।

समाज की ऐसी हीन दशा में यदि तुलसीदास को भीख के लिए भी कष्ट उठाना पड़ा तो क्या आश्चर्य है?

समाज-वर्णन के अतिरिक्त कवितावली में अन्य विषयों का भी वर्णन है―

(अ) मूर्ति-पूजा का वर्णन सीन छन्दों में किया गया है। एक छन्द में मूर्तिपूजा की उत्पत्तियाँ दी गई हैं―