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१८२
कवितावली

१८२ कवितावली साधु कै असाधु के भलो के पोच, सोच कहा, का काहू के द्वार परो ? जो हौं सो हौं राम को ॥१०॥ शब्दार्थ-~~जाति पॉति = ( मुहावरा ) जाति-भेद । पॉति= (स०) पक्ति । श्रयाने = अज्ञान । उपखानोउपाख्यान को, कहावत को । साह:स्वामी। गीत-( स०) गोत्र । पोच-नीच । का काहू के द्वार परो=क्या किसी की शरण मांगता हूँ, अथवा क्या किसी के द्वार पर रक्षा पाने के लिए, धरना दिए बैठा हूँ। भावार्थ- मुझे जाति-भेद का धमड नहीं, न मैं किसी को जाति-पाति चाहता हूँ। न किसी से मेरा कोई कार्य सिद्ध होता है, न मै ही किसी का कुछ प्रयोजन साध सकता हूँ। मेरा तो लोक और परलोक दोनों ही रामचद्रजी के हाथ हैं और मुझे तो केवल रामनाम का बड़ा भरोसा है। लोग अत्यंत मूर्ख हैं जो इस कहावत को नहीं समझते कि सेवक भी स्वामी के ही गोत्र का होता है 1 सजन हूँ अथवा दुर्जन, मला हूँ चाहे बुरा, मुझे इसकी परवाह नही । क्या मैं किसी के दरवाजे धरना दिए पड़ा हूँ। मै जैसा कुछ भी हूँ, रामचंद्र जी का हूँ; अन्य किसी से मुझे कोई सम्बन्ध नहीं। गूल-कोंऊ कहै करत कुसाज दगाबाज बड़ो, . कोऊ कहै राम को गुलाम खरो खूब है। साधु जानै महासाधु, खल जाने महा खल, बानी झूठी साँची कोटि उठत हबूब है। चहत न काहू सों, न कहत काहू की कछु, सब की सहत उर अंतरान ऊब है। 'तुलसी' को भलो पांच हाथ रघुनाथ ही के, राम की भगति भूमि मेरी मति दूब है ॥१६॥ शब्दार्थ-कुसाज = कुसग, बुरी वस्तुओं का संग्रह । खरो खूब है = अत्यंत निष्कपट है। बानी बाते । इबूब - (श्र हुबाब=पानी के बुलबुले) चर्चा | ऊब घबराहट । भावार्थ- कोई कहते हैं कि वह तुलसी बुरी वस्तुओं का संग्रह करता है, अतः बड़ा छली है, और कोई कहते हैं कि यह राम का सच्चा सेवक है।