पृष्ठ:कवितावली.pdf/२८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१९५
उत्तरकांंड


का दास रहता है जिससे सब दुःख तो अपने हो जाते हैं और सब सुख पराये हो जाते है।

अन्वय—तौ लो लोभ, मोह, कोह, काम को किंकर है। प्रथम पाद में ‘लोभ’ का समन्वय तृतीय पाद के उत्तरार्द्ध से करना ठीक है।

मूल—तब लौ मलीन हीन दीन, सुख सपने न,
जहाँ तहाँ दुखी जन भाजन कलेस को।
तब लौं उबेने पायँ फिरत पेटै खलाय,
बाए मुँह सहत पराभौ देस देस को।
तब लौं दयावनो, दुसह दुख दारिद को,
साथरी को सोइबो, ओढी़बो झूने खेस को।
जब लौं न भजै जीह जानकीजीवन राम,
राजन को राज सो तौ साहेब महेस को॥१२५॥

शब्दार्थ—उबेने पायँ= नगे पाँव। पेटै खलाय= लोगों को अपना खाली पेट दिखाकर। चार मुँँह= मुँँह खोलकर। पराभौ= (सं० पराभव) तिरस्कार, अपमान। दयावनो= दया का पात्र। साथरी= चटाई। झूने= झीने, झाझरे, बारीक। खेस= पुरानी रुई के पहले का बना हुआ खुरदुरा कपड़ा। जीह= जिह्वा। साहेब= स्वामी।

भावार्थ—तुलसीदास कहते है कि तभी तक मनुष्य पापी, दीन, हीन रहता है, (तभी तक) स्वप्न में भी उसे सुख नहीं मिलता, (तभी तक) वह दुःखी मनुष्य जहाँ कहीं भी जाता है क्लेश का पात्र होता है, तभी तक वह नगे पाँव, भूखे पेट और मुँँह खोले हुए भटकता हुआ जगह जगह अपमान सहता है, तभी तक वह दयापात्र है, (तभी तक) उसे दरिद्रता का असह्य दुःख है, (तभी तक) उसे चटाई पर सोना और बारीक खुरदुरे कपड़े को ओढ़ना पड़ता है, जब तक उस मनुष्य की जीभ जानकीपति रामचन्द्रजी को न भजे, जो राजाओ के भी राजा और महादेवजी तक के स्वामी हैं।

मूल—ईसन के ईस, महाराजन के महाराज,
देवन के देव, देव! प्रान हूँ के प्रान हौ।
काल हू के काल, महाभूतन के महाभूत,
कर्म हूँ के करम, निदान के निदान हौ।