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कवितावली

कवितावली २१६ भव्य, भाव-बल्लभ, भवेस भवभार-बिभंजन । भूरि भोग, भैरव, शुजोग गंजन, जनरंजन । सिव, कह 'तुलसिदास' किन सजसि मन भद्रसदन मर्दैन मयन !| १५२॥ शब्दार्थ-भूतनाथ == भूतो के स्वामी। भीम =भयकर । भानुमत = प्रकाशवान् , दिव्य प्रभा से युक्त । मागवत-D ऐश्वर्थमान् । भूति= विभूति, भर्म । सुज़मवर भूषन- सपों के भूषण पहने हुए,। भव्य = सुन्दर, रोब दार । भाव-वल्लभ= प्रेम अथवा भ्ति को चाहनेवाले । भवेस-ससार के स्वामी। मवभार-त्रभजन = ससार के भार ( पाप ) की नाश करनेवाले । मूरि भोग = जिसे सब भोग मुयस्सर हैं । मैरव = भयकर शब्द करनेवाले । कुजोग- गजन= दुर्भाग्य को मिटानेवाले । जनरजन -दासो को आनदित करनेवाले । भारती=सरस्वती । भारती-बदन -मुँह पर जिनके सरस्वती है । अदन खानेवाले । सिव = कल्याणकारी । ससि-पतग पावक नयन - चन्द्रमा, सूर्य श्रौर श्ग्नि जिनकी ऑखे हैं । किन भजसि क्यों नषहीं मजता १ भद्र-सदन - भारती-बदन, बिष-अदन ससि-पतंग-पावक-नथन | कल्याण के घर । मयन =( स० मदन, प्रा० मश्रन ) कामदेव । भावार्थ-शिवजी भूत-प्रेतों के नाथ हैं, पर लोगो के भय को दूर करते हैं। वे भवंकरो के लिए भी भय के घर हैं, पृथ्वी को धारण करनेवालं हैं, प्रकाशवान् और ऐश्वर्यमान् हैं ! विभूति र श्रेष्ट सॉप ही ( उनके भूषण हैं), सुन्दर प्रेमभाव ही उनको प्यारा है । वे स सार के स्वामी और स सार के पापों को नाश करनेवाले हैं । वे भोग के भोक्ता हैं, भयंकर कुयोग के नाशक और दासों को आनद-प्रद हैं । उनके मुख मे सरस्वतीजी रहती हैं अर्थात् बडे बक्ता हैं। वे विष का भोजन करते हैं पर कल्याण-कर्ता हैं, चन्द्रमा, सूर्थ और अग्नि उनकी तीनों ऑखे हैं । तुलसीदास कहते हैं कि रे मन, दू ऐसे कल्याण के घर, कामदेव के नाशकतां शिवजी को क्यों नही मजता १ ( सवैया ) मूल নॉगो फिर", कहै माँगनो देखि " न खाँगो कछू , जनि माँ गिये थोरो । राँकनि नाकप रीमि करै, 'तुलसी' नाक सँवारता आयो हौं नाकहि, नाहिं पिनाकिहि नेकु निहोरो । ब्रह्म कहै"गिरिजा? सिखवो , पति रावरो दानि है वावरो भोरो" ॥१५ जग जो जुरै जाचक जोरो।