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कवितावली


दारिदी दुखारी देखि भूसुर भिखारी भीरु,
लोभ मोह काम कोह कलिसल घेरे हैं।
लोकरीति राखी राम, साखी बामदेव जान,
जन की बिनति मानि, भातु! कहि मेरे हैं।
महामायी, महेसानि, महिमा की खानि, मोद,
मंगल की रासि, दास कासी बासी तेरे हैं॥१७३॥

शब्दार्थ— निपट = अत्यत। बसेरे= स्थान, निवासस्थान। औगुन= अवगुण। घनेरे= बहुत। अनेरे= अनीति मे रति। चेरी चेरे= दासीदास। भूसुर= ब्राह्मण। कलिमल= पाप। लोकरीति रखी= अपने पुर (अयोध्या) वासियों को सुखी रखा। साखी= (स० साक्षी) गवाह। महेसानि= पार्वतीजी। मोद= आनंद। महामाई= जगदबा।

भावार्थ— है जगदबा, ये निपट अन्यायी, पाप और अवगुणो के घर काशीवासी स्त्री-पुरुष, तेरे ही दास-दासी है। यद्यपि इनके आचरण ऐसे हैं की दरिद्री और दुखी ब्राह्मण और भिखारियो को देखकर डरते हैं (कि कहीं कुछ मॉग न बैठे— इतने अदानियाँ है) और लोभ, मोह काम, क्रोध की जमात से घिरे रहते हैं (तो भी तुझे इन पर दया ही करनी चाहिए )। श्रीरामजी ने इस लोकरीति को (दासी-दासो पर सदा दया करते रहना) अच्छी रक्षा की है, जिसके साक्षी महादेवजी हैं। (तुम भी लोकरीति रखो) मुझ दास की विनय मानकर, हे माता तुम भी (महामारी से) कह दो कि ये मेरे दास-दासी हैं, इन्हे मत सता। हे महामाया, हे महेशानी, तुम महिमा की खानि और मोद तथा मगल की राशि हो, और काशीवासी वास्तव में तेरे सेवक हैं (तुम्हें उन पर दया करनी ही पड़ेगी, नहीं तो संसार में तुम्हारी निदा होगी और तुम जगदबा कैसे कहलाओगी)।

मूल—लोगन के पाप, कैधौं सिद्ध सुर-साप कैधौ
काल के प्रताप कासी तिहूँ-ताप तई है।
ऊँचे, नीचे, बीच के, धनिक, रक, राजा, राय
हठनि बजाय, करि डीठि, पीठि दुई है।
देवता निहोरे, महामारिन्ह सो कर जोरे,
भोरानाथ जानि भोरे आपनी सी ठई है।