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कवितावली

प्यारे कैसे जीते होंगे? हे सखी! ये तो आँखों में रखने लायक़ हैं, इनको वनवास क्योंकर दिया गया?

[ ४३ ]

सीस जटा, उर बाहु बिसाल, बिलोचन लाल, तिरीछीसी भौंहैं।
तून, सरासन, बान धरे, तुलसी बन-मारग में सुठि सोहैं॥
सादर बारहिं बार सुभाय चितै तुम त्यों* हमरो मन मोहैं।
पुँछति ग्रामवधू सिय सों "कही साँवरे से, सखि! रावरे को हैं"?॥

अर्थसिर पर जटा हैं, वक्षस्थल और बाहें बड़ी हैं, लाल नेत्र हैं, तिरछी सी भौहें हैं। धनुष बाण और तरकस धारण किये हुए हैं। हे तुलसी! वन के रास्ते में बहुत ही शोभा पा रहे हैं। आदरसहित बारम्बार स्वाभाविक तौर पर देखकर हमारा तुम्हारा सबका मन मोहते हैं अथवा तुम्हारी तरह हमारा भी मन मोह लेते हैं। गाँव की स्त्रियाँ सीताजी से पूछती हैं कि कहो यह साँवले से आपके कौन हैं।

[ ४४ ]

सुनि सुंदर बैन सुधारस-साने,† सयानी हैँ जानकी जानी भली।
तिरछे करि नैन दै सैन तिन्हैं समुझाइ कछु मुसुकाइ चली॥
तुलसी तेहि औसर सोहैं सबै अवलोकति लोचन-लाहु अली।
अनुराग-तड़ाग में भानु उदै बिगसीं मानो मंजुल कंज कली॥

अर्थअमृत के रस से पगी सुन्दर वाणी को सुनकर जानकी ने समझ लिया कि यह ग्रामवधु बड़ी सयानी (होशियार) है अथवा (जानकीजी जो बड़ी सयानी हैं) खूब समझ गई। आँखें तिरछी करके उन्हें संकेत देकर समझा दिया और कुछ हँसकर चल दी अथवा हँस सी दीं (अर्थात् आँखों में यह बता दिया कि यह हमारे पति हैं)। हे तुलसी! उस समय पर सब स्त्रियाँ उनको देखकर लोचनों का लाभ उठाने लगीं और ऐसी शोभा को प्राप्त हुई मानो प्रेम के तालाब में सूरज को उदय हुआ देखकर सुन्दर कमल की कलियाँ खिल गईं हों।



*पाठान्तर―तुम्हरी।
†पाठान्तर―सानि।