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सुन्दरकाण्ड
घनाक्षरी
[५३]


बासव बरुन बिधि बन तें सुहावनो,
दसानन को कानन बसंत को सिँगार सो।
समय पुराने पात परत डरत बात,
पालत, ललात रतिमार को बिहार सो॥
देखे बर बापिका तड़ाग बाग को बनाव,
राग बस भो बिरागी पवनकुमार सो।
सीय की दसा बिलोकि विटप असोक तर,
तुलसी बिलोक्यो सो तिलोक सोक-सारु सो॥

अर्थ— इन्द्र, वरुण, ब्रह्मा सबके वन से अधिकतर सुन्दर रावण का वन है, मानो वसन्त का श्रृँगार यही है। समय आ जाने पर भी वायु पुराने पत्ते गिराने से डरता है कि कहीं शोर होने से वा पतझाड़ हो जाने से रावण क्रोध न करे इसलिए वहाँ सदा वसन्त रहता है, अथवा समय पर ही पुराने पत्ते गिरते हैं और वायु सदा रावण से डरता है इसलिए हरे पत्ते कभी नहीं गिराता। उस वन का पालन-पोषण ऐसा होता है जैसे रति और कामदेव के बाग़ का। (उस वन में) सुन्दर बावली, बाग़, तालाब की बनावट को देखकर सहज वैरागी हनुमान का चित्त भी रागवश हो गया। परन्तु अशोक के पेड़ के नीचे सीताजी की दशा को देखकर तुलसीदासजी ने हनुमानजी को तीनों लोकों के शोक के सार सा देखा। अथवा हनुमानजी ने अशोक को तीनों लोक के शोक के सार सा देखा अथवा अशोक के पेड़ के नीचे सीता की दशा देखकर बाग़ को तीनों लोक के शोक का सार देखा।

शब्दार्थ— बांसव= इन्द्र। रतिमार= रति+कामदेव। तिलोक= ति+लोक= तीन लोक। ललात= प्यार करना। विटप= वृक्ष