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कवितावली


मींजि मींजि हाथ धुनैं माथ दशमाथ-तिय,
तुलसी तिलो न भयो बाहिर अगार को॥
सब असबाब डाढ़ो*, मैं न काढ़ो तैं न काढ़ो†,
जिय की परी सँभार‡ सहन भँडार को? ।
खीझति मँदोवै सविषाद देखि मेघनाद,
“बयो लुनियत सब याही दाढ़ीजार को”॥

अर्थ—रानियाँ सब पुकारती रोती घबड़ाई हुई भागी जाती थीं और हनुमानजी के वेष (रूप) को देख नहीं सकती थीं। हे तुलसी! हाथ मल-मलकर और माथा धुन-धुनकर रावण की स्त्रियाँ कहती थीं कि सामने (घर) का असबाब तिल भर (थोड़ा सा भी) बाहिर न हुआ (निकल न सका)। सब असबाब पड़ा है, न मैंने निकाला, न तूने निकाला। जी की सँभाल पड़ गई, असबाब कौन सँभालता। अथवा वह रानियाँ हाथ मलती थीं जो तिल भर भी (ज़रा भी) अगारी (पहिले) पर्दे से बाहर न हुई थीं अथवा अगार (महल) के बाहर न हुई थीं। मन्दोदरी खिसियाकर दुःख सहित मेघनाद की ओर देखकर कहती थी कि सब कुछ इसी दाढ़ीजार का किया है। अब उसे क्यों नहीं काटता (अर्थात् जैसा बीज बोया है वैसा फल पावेगा) अथवा सब कुछ इसी दाढ़ीजार का बोया काटना पड़ता है।

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रावन की रानी जातुधानी विलखानी कहैं,
“हा हा! कोऊ कहै बीसबाहु दसमाथ सों।
काहे मेघनाद, काहे काहे रे महोदर! तू
धीरज न देत, लाइ लेत क्यों न हाथ सों?॥
काहे अतिकाय, काहे काहे रे अकंपन!
अभागे तिय त्यागे भोंड़े भागे जात साथ सों?।



* पाठांतर— डाढ।
†पाठांतर—काढे।
‡पाठांतर—सँभारे।