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कवितावली
[९२]


आये सुक सारन बोलाये ते कहन लागे,
पुलकि सरीर सैना करत फहमही।
‘महाबली वानर बिसाल भालु काल से
कराल हैं, रहे कहाँ, समाहिंगे कहाँ मही’॥
हँस्यो दसमाथ रघुनाथ को प्रताप सुनि,
तुलसी दुरावै मुख सूखत सहमही।
राम के बिरोधे बुरो विधि हरि हरहू को,
सबको भलो है राजा राम के रहमही॥

अर्थ—शुक सारन दूतों को बुलाया तो वह लोग आकर कहने लगे कि वानर सेना की याद करते ही शरीर के रोंगटे खड़े होते हैं। बन्दर बड़े बली हैं, भालु बड़े भारी हैं, काल से भी कठिन हैं, न जाने कहाँ रहते थे, और न जाने पृथ्वी पर कहाँ समायँगे? रामचन्द्र का प्रताप सुनकर रावण हँसा। हे तुलसी! मुँँह सहमकर (घबड़ाकर) सूख गया परन्तु उसे छिपाना चाहता है। रामचन्द्र के वैर से ब्रह्मा-विष्णु-महादेव का भी कल्याण नहीं। सबका भला रामचन्द्र की दया ही से है।

शब्दार्थ—फहम= ससुझ। सहम= डर। रहम= दया।

[९३]


‘आयो आयो आयो साई बानर बहोरि,’ भयो
सोर चहुँ ओर लंका आये जुवराज के।
एक काढ़ै सौज, एक धौंज करै कहा ह्वैहै,
‘पोच भई महा’ सोच सुभट समाज के॥
गाज्यो कपिराज रघुराज की सपथ करि,
मूँँदे कान जातुधान मानौ गाजे गाज के।
सहमि सुखात बातजात की सुरति करि,
लवा ज्यों लुकात तुलसी झपेटे बाज के॥