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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१३५

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८० दिना राति पोखत रहयो वा दुख तें ताहि काढ़ कै जिन जड़ ते जेतन कियो चरन चिकुर कर नख दिये असन बसन बहु विध दये मात पिता भैया मिले सजन कुटुम परिजन बढ़े महामूढ़ विषयी भयो खान पान परिधान रस ज्यों मिट परि परतीय बस जैसे सुख ही मन बढ्यो धूम बढ्यो लोचन जम जान्यो सब जग बीच न काहू तब खस्यो सुन्यो कियो कह जानो कहवा मुवो हरिसों हेत बिसारि के जो पै त्रिय लज्जा नहीं पान 1 ज्यों तंबोली लै दोनो पय पान ॥ १५ ॥ रचि गुण तत्व विधान । नयन नासिका कान।। १६ ।। औसर औसर आनि । नई रुचहि पहिचानि ।। १७ ।। सुत द्वारा धन धाम । चित आकर्ष्या काम ॥ १८ ॥ यौवन गयो व्यतीत । भोर भये भय भीत ॥ १६ ॥ तैसे बढ्यो अनंग | सखा न सूझ्यो संग ||२०|| बाढ़यो अजस (जब) दूतनि काट्यो बार२१॥ ऐसे कुमति सुख चाहत है नीच कहा कहौं सौ अपार । कुमीच । ॥२२॥ बार । एकहु अंक न हरि भजे रे सठ सूर गंवार ॥ २३ ॥