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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१३९

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८४ कुलवंत पुरुष कुलविधि तजै सन्यास धारि धन संग्रहै को सिखवत हंसन को सज्जन को सिंहन को बन्धु न मानै बन्धु हित । ये जग में मूरख विदित ॥ २ ॥ लाज गृह काज रङ्ग रति । सिक्खवत करन पय पान भिन्न गति ॥ सिखवत दान अरु शील सुलच्छन । कुल बधू सिखवत हनन गज कुंभ ततच्छन || विधि रच्यो जानि नरहरि निरखि कुल सुभाव को मिट्टवै । गुण धर्म अकबर साह सुन को नर काको सिक्खवै ॥ ३ ॥ सठन सनेह जु करै मान बेचै सुलुब्ध कहें । सुख वह साँकरै तजै स्वामि कहँ ॥ पिय बियोग मन बन्ध हि पर रमन खेल नृपति मित्र करि गिनहि चुक्क हित समै नरहरि निरखि पछताहि सुते नर भगति बिन खैर घृत मधु माखी मूस जरा सर्प दुर्जन सँग खेलहि । मुख अंगुलि मेलहिं ॥ जड़ आगे बिस्तरहि गुन । दौलत दलपति खान सुन॥४॥ धनी निरधनो बैर कायर अरु सूरहि । बैर बैर निम्मूहि कपूरहि ॥ बैर बैर पावक अरु पानी । बेर मूरख अरु ज्ञानी ॥ सर्पह जोबना बैर बड़ बैर मोर जिमि चन्द मन नरहरि सुकबि कबित किय न कछु क्रिया बिन विप्र न कछु नीति बिन नृपति न कछु वाम बिन धाम कपट को हेत न कछु न कछु दान सनमान बिन जन सुनो सकल नरहरि कहत बिरहिन बैर बसन्त सों । मङ्गन बैर अदत्त सों ॥ ५ ॥ न कछु कायर जिय छत्री । न कछु अच्छर बिन मन्त्री ॥ गथ बिन गरुआई । न कछु न कछु मुख आप बड़ाई ।। न कछु सुभोजन जासु दिन । न कछु जनम हरि-भक्ति बिन॥६॥