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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१४०

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८५ नरहरि सरवर नीर न पीवहीँ स्वाति बुंद की केहरि कबहुँ न तृन चरं जो प्रत करै आस । पचास ॥ जो अत करें पचास बिपुल गज्जूह बिदारै । धन हूँ गर्व न करै निधन नहि दीन उचार ॥ नरहरि कुल क सुभाव मिटै नहि जब लग जीवै ! नीर सरवर नहि पीवै ॥ ७ ॥ बाजि गजराज न दर दर । नारि पतिव्रता न घर घर ॥ बन बन । घन ॥ बहुरि बरु नातक मरि जाय सर सर हंस न होत तर तर सुफर न होत मन मन सुमति न होत फन फन मनि नहि होत रन रन सूर न होत हैं नर सुना सफल नरहरि कहत भूमि धरत अवतरत पुनि जेावन मदमत्त तत्व विजय हेत जड़ फिरत गयो जन्म गुन गनत थिर रहत न कोउ नरपति न सुइ अजर अमर नरहरि निरखि कबहुँ द्वार प्रतिहार बहु देत धन कोटि कबहुँ नृपति मुख चहत कबहु दास लघु दास कछु जानि न संपत्ति गब्बिये for हार न मानत सत पुरुष अन्त घन मलैगिर होत न मुक्त जल होत न जन जन होत न भक्ति हरि । सब नर होत न एक सरि॥८॥ करत बानक बिनोद रस । इन्द्री अनङ्ग बस || पहुँच्यो बिरधप्पन । कछु भयो न अप्पन ॥ बल रहत एक चहुँ जुग्ग जस । पिये भक्ति भगवंत रस ॥६॥ कबहुँ दर दर फिरंत नर । कबहुँ कर तर करंत कर ॥ कहत करि रहत वचन बस । करत उपहास जिभ्य रस । विपत्ति न यह उर आनिये । नरहरि हरिहि सँभारिये ॥१०॥