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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१४४

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मन्ददास ct अति सुदेस कटि देस सिंह सोभित सघनन अल । आकरसत बरसत प्रेम सुधारस ॥ जोवन मद गूढ़ जानु आजानुबाहु गङ्गादिकन पवित्र करत जब दिन मनि श्रीकृष्ण द्रुगन तें दूरि भये पसरि परयो अंधियार सकल संसार तिमिर ग्रसित सब लोक-ओक लखि दुखित मद - गज-गति-लोलें । अवनी पर डोलै ॥ दुरि । घुमड़ घिरि ॥ दयाकर । विभाकर ॥ न जाई । रह्यो जड़ताई ॥ प्रकट कियो अद्भुत प्रभाव भागवत श्रीवृन्दावन विदधन कछु छवि वरनि कृष्ण ललित लीला के जहें नग खग मग लता काज गहि कुञ्ज वीरुध तृन जेते । नहि न काल गुन प्रभा सदा सब दिन रहत सोभित रहें तेते ॥ सँग चरहीँ । सकल जन्तु अविरुद्ध जहाँ हरि मृग काम क्राध मद लोभ रहित लीला बसन्त कृष्ण अवलोकन जा विभूति करि सोभित ज्यों लक्ष्मी निज रूप अनूपम पद सेवति भू बिलसत जु विभूति जगत जगमग रही जित श्री अनन्त महिमा अनन्त को बरनि त्रिभुवन कानन सङ्करपन अनुसरहीँ ॥ लोभा । सोभा ॥ नित । कित ॥ सकै कवि । छवि ॥ जस । कछुक कही श्रीमुख जाकी देवन में श्री रमारमन नारायन प्रभु वन में वृन्दावन सुदेस सब दिन सोभित या बन की खर बानिक या सेख महेस सुरेस गर्नस न पारहि अस । बनही बन आवै । पावै ॥ जह जेतिक द्रुमजात कल्पतरू सम सब लायक । चिन्तामणि सम सकल भूमि चिन्तित फल दायक