to कविता-कौमुदी लगि रही जगमग ज्योती । तिन महँ इक जु कल्पतरु पात मूल फल फूल सकल हीरा सह मुतियन के गन्ध लुब्ध अस गान घर किन्नर गन्धर्व अपच्छर तिन पर सुख गुही अति सुही सुन्दर पियको स्रम दूर मनि मोती ॥ करत अलि । गइ बाल || अमृत फुही परत रहत नित । रास रसिक करन हित । ता. सुरतरु मह और एक अद्भुत छांबे छाजै । विराजै ॥ साखा दल फल फूलनि हरि प्रतिबिम्ब मन । ता तरु कोमल कनक भूमि मनिमय मोहत दिखियतु सब प्रतिविम्ब मनौ घर महँ दूसर बन ॥ जमुनाजू अति प्रेम भरी नित मनि मण्डित महिमाँह दौरि अङ्क चित्र बहुत सुगहरी । जनु परसत लहरी || सुभग अति । अद्भुत चक्राकृति ॥ को सङ्क तह इक मनिमय 'तापर षोडश दल सरोज मधि कमनीय करिनिका सब तह राजन वृजराज कुँअर वर fast विभाकर दुति मैटत सुन्दर नन्द कुँअर उर पर सुख सुन्दर कन्दर रसिक पुरन्दर । सुभ मनि कौस्तुभ अस । सोई लागति उडु जस ॥ मोहन अद्भुत रूप कहि न आवत छबि ताकी । अखिल खण्ड व्यापी जु ब्रह्म आभा है जाकी ॥ धरमातम परब्रह्म सबनके अन्तरजामी । नारायन भगवान धरम करि सबके स्वामी ॥ बाल कुमर पौगण्ड धरम आक्रान्त ललित तन । धरमी नित्य किसोर कान्ह मोहत अस अद्भुत गोपाल लाल सब काल बसत पाही ते बैकुण्ठ विभव कुण्ठित लागत सबको मन ॥ जहॅ । तहँ