पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१६

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संसार के पदार्थों और घटनाओं को सभी देखते हैं परन्तु जिन आँखों से उन्हें कवि देखता है वे निराली ही होती है। गँधार के लिये पहाड़ों के भीतर से आती हुई नदी एक नदी मात्र है, कवि के लिये उस श्वेतवस्त्रा शोभायुक्त लाजवती का नाचता हुआ शरीर शृंगार की रंगभूमि है। आँख वही, पर चितवन में भेद है। बिहारी ने यह तो सच कहा है—

अनियारे दीरध नयन किती न तरुनि समान।
वह चितवन कछु और है जिहि बस होत सुजान॥

केवल बाहरी आँखों किन्तु बिहारी ने इस रसीले दोहे में ही के रस का वर्णन किया—और वह भी अधूरा। वास्तव में वश करने वाली आँखों में इतना भेद नहीं होता, जितना वश होने वाली आँखों में। होरे की परख जौहरी की आखें करती हैं, कुब्जा के सौन्दर्य की पहिचान रस प्रवीण कृष्ण ही का होती है; पदार्थ रूपी चित्रों में चितेरे के हाथ की महिमा कवि की ही आँखें पहिचानती हैं, प्राकृतिक देवी सङ्गीत उसी के कान सुनते है। विज्ञानवेत्ता पदार्थो के बाहरी अंगों की छानबीन करता है, और उनके अवयवों का सम्बन्ध दूँढता है, नीति उनसे मनुष्य समाज के लिये परिणाम निकालता है, किन्तु उनके आंतरिक सौन्दर्य की ओर कवि ही का लक्ष्य रहता है। वैज्ञानिक और नीतिज्ञ भी जैसे जैसे अपने लक्ष्य की खोज में गहरे डूबते हैं, वैसे वैसे कवि के समीप पहुँचते जाते हैं। सभी विधाओं और शास्त्रों का अन्त और उनकी सफलता कविता में लीन होने ही में है। कवि के सम्बन्ध में कहा है:—

जानते यत्न चन्द्राकोँ जानन्ते यन्न योगिनः।
जानीते यन्न भर्गोपि तज्जानाति कविः स्वयम्॥