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यह कवि और कविता का आदर्श है, इसी आदर्श की ओर सच्चा कवि जाता है। जितना ही वह उसके समीप पहुँचता है उतना ही वह प्रभावशाली और उसकी कविता स्थायी होती है। भाषा तो केवल एक पहनावा मात्र है। उसकी कविता वास्तव में संसार के लाभ के लिये होती है; क्योंकि कवि की सृष्टि में सम्पूर्ण प्रजातंत्र है, समष्टिवाद का शुद्ध व्यवहार है। यहाँ स्वतंत्रता है, स्वच्छन्दता है, अपरिमित सम्पति है। कोई रोकने वाला नहीं, जितना चाहो उसमें से लेते जाओ वह घटती नहीं, तुममें केवल इच्छा और शक्ति की आवश्यकता है।

हिन्दी बोलने वालों का यह सौभाग्य है कि कविता के ऊँचे आदर्श के समीप तक पहुँचने वाले कई कवि ऐसे हुए है जिन्होंने हिन्दी भाषा द्वारा अपनी अमूल्य वाणी से संसार का उपकार किया है। मनुष्य जाति सदा उनका ऋणी रहेगी। कबीर और सूर और तुलसी—अहा! इनके नामों का स्मरण करते ही किस दीप्यमान सौन्दर्य और पवित्र आनन्द की सृष्टि के द्वार खुल जाते हैं। इनके भावों को जिसने समझा वह सच्चा पंडित, इनके मर्म को जिसने पाया, वह स्वयं महात्मा है। संसार साहित्य की चर्चा करता है; काँच को हीरा जानकर उसके पीछे दौड़ता है, खेल के गुड्डे को बालक समझ कर उसका व्याह करता है, और अपनी करतूत पर अभिमानी बनता है। अनेक भाषाएँ अपने अपने काँच के टुकड़ों को सामने रख हीरे का दम भरती हैं, किन्तु जैसा कबीर जी ने कहा है—

सिंहन के लँहड़े नहीं, हंसन की नहिँ पाँत।
लालन की नहि बोरियाँ, साधु न चलें जमात॥