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कवियों के भी लँहड़े नहीं होते। वह काल, वह देश भाग्य वान् है जहाँ एक भी कवि उत्पन्न हो जाय। कबीर और सूर और तुलसी यह हिन्दी भाषा ही के नहीं, संसार साहित्य लाल हैं, परखने वाले की आवश्यकता है। कबीर के दोहों और शब्दों की परख कौन करता है? सूर के पदों और तुलसी की चौपाइयों को कौन तोलता है? मात्रा और अक्षरों के गिनने वाले समालोचक? छिः! परखने के लिए कुछ हृदय की सामग्री चाहिये, पुस्तकों के आडम्बर की आवश्यकता नहीं। इन कवियों के हँसने और रोने का अर्थ कौन समझता है? इनके वाक्यों के मर्म तक कौन पहुँचता है? स्वयं कोई मस्त प्रेमी, कोई कविता का मतवाला, जो शुद्ध हृदय से अभिमान छोड़ इस सृष्टि के भीतर नम्रता पूर्वक शिष्य बनकर आता है।

"ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंण्डित होय।"

कुछ काँच पहिचानने वाले समालोचक हिन्दी भाषा में साहित्य की कमी देखते हैं। गाँव का रहने वाला, जिसने अपनी गाँव की दूकान में रंग बिरंग के काँच के टुकड़े देखे हैं, नगर में आकर जब एक बड़े जौहरी की दूकान में जाता है तो अपने गाँव की दुकान के समान रँगीले काँचों को न देखकर बहुमूल्य मणियों का तिरस्कार करता है, और कहता है—हमारे गाँव की दुकान के समान यहाँ मणियाँ तो हैं ही नहीं। ठीक यही दशा इन समालोचकों की है। "यह गाहक करबीन के तुम लीनी कर बीन"। यदि मणि की परख न हो तो मणि का दोष नहीं, परखने वाले का दोष है। किन्तु काँच का भी संसार में काम है, वे भी चमकीले होते हैं, देखने में अच्छे लगते हैं। काँच के टुकड़े भी धन्य हैं, उनमें भी सौन्दर्य है,