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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१८३

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कविता-कौमुदी
 

यही दिवस हों चाहत नाहाँ चलो साथ पिय है गलवाहाँ
सारस पँख नहिं जिये निरारे हौं तुम बिन का जियाँ पियारे
न्योछावर कै तन छहराऊँ छार होउ सँग बहुर न आऊँ

दीपक प्रीति पतंग ज्यों जन्म निवाह करेउ।
न्योछावर चहुँपास ह्वै कंठ लाग जिय देउं॥


 

पद्मावत का सती होना

नागमती पद्मावत रानी दोउ महासत सती बखानी
दोउ सौत चढ़ खाट जो बैठी औ शिवलोक परातहँ दीठी
बैठो कोइ राज औ पाटा अन्त सबै बैठे पुनि स्राटा
चन्दन अगर काढ़सर साजा औ गति देय चले लै राजा
बाजन बाजहि होय अगोता दोउ कन्तलै चाहै सोता
एक जो बाजा भयो विवाह्न अब दुसरे हैं और निबाहू
जियत जलै जो कन्त की आसा मुये रहस बैठे इक पासा

आज सूर दिन अथयो आज रयनि शशि बूड़।
आज नाथ जिय दीजिये आज अगिन हम जूड़॥

सर रच दान पुण्य बहु कीन्हा सात बार फिर भाँवर लीन्हा
एक जो भाँवर भयो वियाही अब दूसर ह्वै गाहन जाही
जियत कन्त तुम हम गल लाई मुये कण्ठ नहि छाड़डु साई
लै सर ऊपर खाट बिछाई पौढ़ी दोउ कन्त गल लाई
और जो गाँठ कन्त तुम जोरी आदि अन्त लहि जाय न छोरी
वह जग काह जो अथहि न याथी हम तुम नाह दोहू जग साथी
लागी कण्ठ अंग दै होरी छार भई जर अङ्ग न मोरी

राती पिय के नेह की स्वर्ग भयो रतनार।
जो रे उवा सो अथवा रहा न कोइ संसार॥