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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१८४

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मलिक मुहम्मद जायसी
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वै सहगवन भई जिय आई बादशाह गढ़ छेका आई
तबलग सो अवसर ह्वै बीता भये अलोप राम औ सीता
आय शाह जो सुना अखारा ह्वै गह रात दिवस उजियारा
छार उठाय लीन इक मूठी दोन्द उड़ाय पिरथवी झूँठी
सगरे कटक उठाइ माटी पुल बाँधा जहँ जहँ गढ़ घाटी
जौ लहि उपर छार नहिं परै तौ लहि यह तृष्णा नहिं मरै
भा दहवा भा जूझ असूझा बादल आय पँवर पर जूझा

जून्हर भइँ सब स्त्री पुरुष भये संग्राम।
बादशाह गढ़ चूरा चित्तौर भा इसलाम॥

मैं यह अर्थ पण्डितन बूझा कहा कि हम कुछ और न सूझा
चौदह भुवन जोहत उपराहीं सो सब मानुष के घट माहीँ
तन चित्तोर मन राजा कीन्हा हियसिंहल बुधिपद्मिनि चीन्हा
गुरू सुवा जेहि पंथ दिखावा बिनगुरुजगतसो निरगुनपावा
नागमती यह दुनिया धन्धा बाचा सोई न यह चितबन्धा
राघव दूत सोई शैतानू माया अलाउदीं सुलतानू
प्रेम कथा यह भाँति विचारू बूझ लेहु जो बुझहि पारू

तुरकी अरबी हिन्दवी भाषा जेती आहि।
जामें मारग प्रेमका सबै सराहै ताहिं॥

मुहमद कवि यह जोर सुनावा सुना सो प्रम पीर का पावा
जोरे लाय रक्त ले गये प्रेम प्रीति नयनहिं जल भये
औ मैं जान गीत अस कीन्हा की यह रीति जगत महँ चीन्हा
कहाँ सो रतनसेन अब राजा कहाँ सुवा अस बुध उपराजा
कहाँ अलाउद्दीन सुलतानू कहँ राघव जेहि कीन्ह बखानू
कहूँ सुरूप पद्मावति रानी कुछ न रही जग रही कहानी
धन सोई यह कीरति तासु फूल मरै पर मरै न बासू