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हमें बड़ी हो कठिनता पड़ती। हाथ मुँह आदि के संकेतों से हम अपने मनोभाव पूर्ण रूप से प्रकट ही न कर सकते। संसार व्यवहार में कभी उन्नति न होती।

साधारण रूप से भाषा के दो भेद किये जा सकते हैं। एक व्यक्त, दूसरा अव्यक्त। विचारों को पूर्ण रूप से प्रकट करने वाली मनुष्य की भाषा व्यक्त कहलाती है, और पशु-पक्षी की बोली अव्यक्त। पशु-पक्षी अपनी बोली से दुःख, सुख, भय आदि मनोविकारों को प्रकट करने के सिवाय कोई नई बात नहीं बतला सकते। जब हम सोचते हैं तब भीतर ही भीतर मन से हम एक प्रकार की बातचीत करते रहते हैं। यदि हम चाहें तो उसी बातचीत को एकत्र करके लिख ले सकते हैं। बहुत समय बीत जाने पर भी हम उस लेख को देखकर यह स्मरण कर सकते हैं कि किसी दिन हमने अपने मन से इस विषय पर बात चोटकी थी। भाषा बिना यह सुगमता कैसे हो सकती है?

व्यक्त भाषा के दो भाग हैं—कथित और लिखित। जब कोई मनुष्य हमारे सामने होता है, तब उसके लिये अपने विचार प्रकट करने में हम कथित भाषा काम में लाते हैं। और जब हमें अपने विचार किसी दूर वाले मनुष्य के पास भेजने पड़ते हैं, या भविष्य के लिए चिरस्थायी रखने पड़ते हैं, तब हम लिखित भाषा का उपयोग करते हैं।

हमारे पूर्वजों ने लिखित भाषा के लिये शब्द की एक-एक मूल ध्वनि का एक चिन्ह नियत कर लिया है, जिन्हें अक्षर या वर्ण कहते हैं। पहले भाषा में केवल कान ही काम देता था, वर्णों की रचना से आँख भी भाषा के लिये उपयोगी हो गई।