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पहले लोग कथित भाषा से ही काम लेते थे। बड़े छोटे सब प्रकार के विचार केवल कथन द्वारा प्रकट किये जाते थे। जो विचार सुनने वाले को प्रिय लगते थे, उन्हें वह स्मरण रखता था; और अप्रिय विचारों को, चाहे वे भविष्य में उसके लिये लाभदायक ही हों, वह उपेक्षा के भाव से देखता था। इसका परिणाम यह होता था कि आगे चल कर उस यदि पूर्वकाल के अप्रिय विचारों की ही आवश्यकता पड़ती थी तो फिर उसे सोचना पड़ता था। परंतु अक्षर-लिपि को उत्पत्ति से यह असुविधा दूर हो गई। अब विचार चिरस्थायी किये जा सकते हैं। आज ओ कुछ हम सोचते हैं उसे लिखित भाषा के रूप में रख सकते हैं और हजारों वर्ष बीत जाने पर भी वे देखे जा सकते हैं। अक्षर-लिपि की ही सहायता से तो हम आज बाल्मीकि, व्यास, कालिदास और तुलसीदास के विचारों को इस प्रकार जान सकते हैं, मानो वे स्वयं हमारे सामने आकर कह रहे हों।

भाषा सदा स्थिर नहीं रहती। उसमें परिवर्तन होता रहता है। हजारों वर्ष पहले जो भाषा बोली वा लिखी जाती थी, आज उसका वह रूप नहीं है। भाषा का नया और पुराना रूप मिलान कर देखने से यह बात आसानी से जानी जा सकती है कि परिवर्तन किस प्रकार से हुआ है। भाषा तत्व के पंडितों का कथन है कि जब भाषा में परिवर्तन रुक जाता है तब उसकी उन्नति भी रुक जाती है। सभ्यता के साथ भाषा का घनिष्ठ सम्बन्ध है। सभ्यता की वृद्धि के साथ भाषा की भी वृद्धि होती है। उसमें नये विचार और उन विचारों के द्योतक नये शब्द मिलते रहते हैं, और भाषा का भंडार बढ़ता रहता है। भाषा में परिवर्तन