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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२४५

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कविता-कौमुदी
 

कौन भरोसा देह का छाड़डु जतन उपाइ।
कागद की जस पूतरी पानि परे धुलि जाइ॥२॥
तब लडु सहिये बिरह दुःख जब लागि आव सो वार।
दुःख गये तब सुक्ख है जानै सब संसार॥३॥
सब कहँ अमिरित पाँच है बंगाली कहँ सात।
केला, काँजी, पान, रस साग माछरी भात॥४॥
छत्री सुनि जो ना करे तिय अरू गाय जोहारि।
पुहुमी कुल गारी चढ़ै सरग होई मुख कारि॥५॥
लोयन जाहि कटाच्छ सर मारी प्राण हरि लीन्ह।
अधर वचन ततखिन दोऊ अमिय सींचि जिउ दीन्ह॥६॥
कहाँ सो विक्रम सकबँधी कहाँ जो राजा भोज।
हम हम करत हेराइगे मिला न खोजे खोज॥७॥


 

मुबारक

सैयद मुबारक अली बिल ग्रामी का जन्म सं॰ १६४० में हुआ। ये अरबी फ़ारसी और संस्कृत के अच्छे विद्वान् थे। इनकी कविता बड़ी सरस है। इनका रचा हुआ अलक शतक और तिल शतक प्रकाशित हो चुका है। और भी बहुत से स्फुट छंद मिलते हैं।

इनकी कविता के कुछ नमूने देखिये—

कान्हको बाँकी चितौनि चुभी झुकि काल्हिही झाँकी हैं ग्वालि
गवाछनि। देखी है नौखी सी चोखी सी कोरनि भोछे फिरै
उभरे चित जा छनि॥ मारयो सँभार हिये में मुबारक यैं
सहजै कजरारे मृगाछनि। सींक लै काजर देरी गँवारिनि
आँगुरी तेरी कटैमी कटाछनि॥१॥