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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२५०

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प्रवीणराय
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अंग मरंग तहीं कुछ संभु सु केहरि लंक गयदहि घेरे।
भौंह कमान तहीँ मृग लोचन खंजन क्यों न चुगै तिल नेरे॥
है कच राहु तहीँ उदै इन्दु सु कीर के बिंबन चोंचन मेरे।
कोऊ न काहूँ सो रोस करै सु डरै डर साह अकब्बर तेरे॥

प्रवीणराय की प्रवीणता देख कर अकबर बहुत प्रसन्न हुआ और उसने उसे इन्द्रजीत ही के पास रहने दिया। केशवदास के उद्योग और महाराजा बीरबल की प्रेरणा से इन्द्रजीत का एक करोड़ का जुरमाना भी माफ़ कर दिया।

कवि-प्रिया में केसबदास ने प्रवीणराय की प्रशंसा लक्ष्मी के समान की है। प्रवीणराय का लिखा कोई ग्रंथ नहीं मिलता। कुछ फुटकर छंद मिलते हैं। उनमें से कुछ यहाँ लिखे जाते हैं:—

सीतल समीर ढार, मंजन कै धनसार
अमल अंगौछे आछे मनसे सुधारिहौं।
दैहौं ना पलक एक लागन पलक पर
मिलि अभिराम आछी तपनि उतारिहौं
कहत "प्रवीनराय" आपनी न ठौर पाय
सुन बाम नैन या बचन प्रतिपारिहौं।
जबहीँ मिलेंगे मोहिँ इन्द्रजीत प्रान प्यारे
दाहिनो नयन मूँदि तोहीं सौं निहारिहीं॥

अँचे ह्वै सुर बस किये सम ह्वै नर बस कीन।
अब पताल बस करन को ढरकि पयानो कीन॥

कमल कोक श्रीफल अँजीर कलधौत कलश हर।
उच्च मिलन अति कठिन दमक बहु स्वल्प नील घर॥