गाइये तौ तब जब गाइबे को कंठ होइ
श्रवण के सुनत ही मन जाइ गहिये॥
तुक भंग छंद भंग अरथ मिलै न कछु
सुन्दर कहत ऐसी बानी नहीं कहिये॥४॥
पतिही सूँ प्रेम होइ पतिही सूँ नेम होइ
पतिहीँ सूँ छेम होइ पति ही सूँ रत है।
पतिही है जज्ञ जोग पतिही है रस भोग
पतिही सूँ मिटै सोग पतिही को जत है॥
पतिही है ज्ञान ध्यान पतिही है पुन्य दान
पतिही है तीर्थ न्हान पतिही को मत है॥
पति बिनु पति नाहिं पति बिनु गति नाहिं
सुन्दर सकल विधि एक पतिव्रत है॥५॥
ब्रह्म तें पुरुष अरु प्रकृति प्रगट भई
प्रकृति तें महत्तत्व पुनि अहंकार है॥
अहंकारहूँ तें तीन गुण सत रज तम
तमहू तें महाभूत विषय पसार है॥
रजहू तें इन्द्री दस पृथक पृथक भई
सत्तहू तें मम आदि देवता विचार है॥
ऐसे अनुक्रम करि सिष्य सूँ कहत गुरु
सुन्दर सकल यह मिथ्या भ्रम जार है॥६॥
सुनत नगारे चोट बिकसै कमल मुख
अधिक उछाह फूल्यो मायहू न तन में॥
फेरे जब साँग तब कोई नहि धीर धरै
कायर कँपायमान होत देखि मन में॥
कूद के पतंग जैसै परत पावक माहिं
ऐसे टूटि परै बहु सावँत के घन में॥
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कविता-कौमुदी