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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२६४

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सुन्दरदास
२०९
 

मारि घमसान करि सुन्दर जुहारै स्याम
सोई सूरबीर रोपि रहैं जाइ रन में॥७॥
पाँव रोपि रहै रण माहिं रजपूत कोऊ
हय गज गाजत जुरत जहाँ दल है।
बाजत जुझाऊ सहनाई सिंधु राग पुनि
सुनतहि कायर की छूटि जात कल है।
झलकत बरछी तिरछी तरबार वहै
मार मार करत परत खलमल है।
ऐसे जुद्ध में अडिग्ग सुन्दर सुभट सोई
घर माहिं सूरमा कहावत सकल है॥८॥
आसन बसन बहु भूषण सकल अंग
सम्पत्ति विविध भाँति भर्‌यो सब घर है।
श्रवण नगारो सुनि छिनन में छाँड़ि जात
ऐसे नहिं जानै कछु मेरो वहाँ मर है।
तन में उछाह रण माहिं टूक टूक होइ
निर्भय निसंक वाके रंचहू न डर है।
सुन्दर कहत कोउ देह को ममत्व नाहिं
सूरमा को देखियत सीस बिनु धर है॥९॥
कामिनी की देह अति कहिये सघन बन
उहाँ सु तौ जाय कोऊ भूलि कै परत है।
कुंजर है गति कटि केहरि की भय यामें
बेनी कारी नागिन सी फन को धरत है।
कुच है पहार जहाँ काम चोर बैठो तहाँ
साधि कै कटाच्छ बान प्रान को हरत है।
सुन्दर कहत एक और अति भय तामें
राछसी बदन खाँव खाँव ही करत है॥१०॥

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