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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२६५

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कविता-कौमुदी
 

देखहु दुरमति या संसार की।

हरि सों हीरा छाँड़ि हाथ तें बाँथत मोट बिकार की॥
नाना विधि के करम कमावत खबरि नहीं सिर भार की।
झूठे सुख में भूलि रहे हैं फूटी आँख गँवार की॥
कोइ स्वेती कोइ बनजी लागै कोई आस हथ्यार की।
अंघ धुंध में चहुँ दिसि ध्याये सुधि बिसरी करतार की॥
नरक जानिं के मारग चालै सुनि सुनि बात लबार की।
अपने हाथ गले में बाही पासी माया जार की॥
बारम्बार पुकार कहत हौं सौंहैं सिरजनहार की।
सुन्दरदास बिनस करि जैंहैं देह छिनक में छार की॥११॥
पुरुष प्रकृति संयोग जगत् उपजत है ऐसे।
रवि दर्पण दृष्टान्त अग्नि उपजत है तैसे॥
सुई होहिं चैतन्य यथा चुम्बक के संगा।
यथा पवन संयोग उद‌धि में उठहिँ तरंगा॥
अरु यथा सूर संयोग पुनि चक्ष रूप कौं गहत है।
यों जड़ चेतन संयोग तें सृष्टि उपजती कहत है॥१२॥
गज क्रीड़त अपने रंगा बन में मदमत्त अनंगा।
बलवन्त महा अधिकारी गहि तरवर लेइ उपारी।
इक मनुष तहाँ कोउ आवा तिहि कुञ्जर देखन पावा।
उन ऐसी बुद्धि विचारी फिरि आवा नत्र मझारी।
तब कह्यों नृपति सौं जाई इक गज बन माँझ रहाई।
जौ लै आवै गज भाई देहों तब बहुत बधाई।
तब बिदा होइ घर आवा मन में कछु फिकिर उपावा।
तब बुद्धि विधाता दीनी कागद की हथिनी कीनी।
तय दूत तहाँ लै जाहीं गज रहत जहाँ बन माहीं।
तहँ खंदक कीना जाई पतरे तृन दीन छवाई।