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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२८४

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भूषण
२२९
 

राखी हिन्दुवादी हिन्दुवान को तिलक राख्यो अस्मृधि
पुरान राखे वेद विधि सुनी हैं। राखी रजपूती राजधानी
राखी राजन की धरा मैं धर्म राख्यो राख्यो गुन गुनी मैं।
भूषन सुकवि जीति हद्द मरहट्ठन की देस देस कीरति बखानी
तव सुनी मैं। साहि के सपूत सिवराज समसेर तेरी दिल्ली
दल दावि के दिवाल राखी दुनी मैं॥२१॥

सारस से सूबा करवानक से साहजादे मोर से मुगल
मीर धीर ही धचैं नहीं। बगुला से बंगस बलूचियो बतक
ऐसे काबुली कुलंग याते रन में रचै नहीं॥ भूषन जू खेलत
सितारे में शिकार शिवा साहि को सुवन जाते दुवन सँचै
नहीं। बाजी सब बाज से चपेटैं चंगु चहुँ ओर तीतर तुरुक
दिल्ली भीतर बचै नहीं॥२२॥

"सिवा की बड़ाई औ हमारी लघुताई क्यों कहत बार
बार" कहि पातसाह गरजा। सुनिये "खुमान हरि तुरुक
गुमान महिदेवन जैँवायो" कवि भूषन यों अरजा॥ तुम
बाको पाय कै जरूर रन छोरो वह रावरे वजीर छोरि देत
करि परजा। मालुम तिहारो होत याहि में निबेरो रन कायर
सो कायर औ सरजा सो सरजा॥२३॥

फिरगाने फिकिरि औ हृद्द सुनि हबसाने भूखन भनत कोऊ
सोवत न घरी है। बीजापुर विपति बिडारि सुनि भाज्यो
सब दिल्ली दरगाह बीच परी खर भरी है राजन के राज सब
साहिन के सिरताज आज सिवराज पातसाही चित धरी
है। बलख बुखारे कसमीर लौं परी पुकार धाम धाम धूम
धाम रूम साम परी है॥२४॥

दारा की न दौर यह रार नहीं खजुवे की बाँधियो नहीं है
कैधों मीर सह‌वाल को। मठ विस्वनाथ को न वास ग्राम गोकुल