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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२८८

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मतिराम
२३३
 

जुहूँ विमान-प्रनितान के श्रमजल हरत अनूप।
सौंध पताकनि के बसन होइ विजन अनुरूप॥५॥
बीना देनु निनाद मृग मोहि अचल करि चन्द्र।
सौध सिखर ऊपर जहाँ दम्पति करत अनन्द॥६॥
जहाँ छहौं ऋतु मैं मधुर सुनि मृदङ्ग मृदु सोर।
सङ्ग ललित ललनानि के नृत्य करत गृह मोर॥७॥
मरकत लाल प्रबाल मनि मुकुत हीर अवदात।
ललित राजपथ मैं जहाँ जरकस बसन बिकात॥८॥
मद जल बरषत भूमि के जलधर सम मातङ्ग।
बिना परनि के खग जहाँ सुन्दर तरल तुरङ्ग॥९॥
सदा प्रफुल्लित फलित जइँ द्रुम बेलिन के बाग।
अलि कोकिल कलधुनि सुनत लहत श्रवन अनुराग॥१०॥
कमल कुमुद कुबलयन के परिमल मधुर पराग।
सुरभि सलिल-पूरे जहाँ वापी कूप तड़ाग॥११॥
शुक चकोर चातक चुहिल कोक मत्त कलहंस।
जहूँ तरवर सरवरन के लसत ललित अवतंस॥१२॥
अझैबट बालक उदर ज्यौं संसार समाय।
सकल जगत पानिप रह्यौ बूंदी में ठहराय॥१३॥
तामैं प्रतिबिम्बित मनौं सम्पति जुत सुरलोक।
घर घर नर नारी लसैं दिव्य रूप के ओक॥१४॥
चन्द्रमुखिन के भौंह जुग कुटिल कठोर उरोज।
बाननि सौं भन कौं जहाँ मारत एक मनोज॥१५॥
जहाँ चित्त चोरी करैं मधुर बदन मुलकानि।
रूप ठगत है द्वगन कौं ओर न दूजी जानि॥१६॥
ता नगरी को प्रभु बड़ा हाड़ा सुरजनराव।
रच्यो एक सब गुननि को बर विरञ्चि समुदाव॥१७॥