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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/३१८

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बैताल
२६३
 

बाँभन सो मरिजाय हाथ है मदिरा प्यावै।
पूत वही मरि जाय जु कुल में दाग लगावै॥
अरु वे मियाव राजा मरै तबै नींद भरि सोइये।
बैताल कहै बिक्रम खुनो एते भरे मरे न रोइये॥३॥
राजा चंचल होय मुलुक को सर करि लावै।
पंडित चंचल होय सभा उत्तर दै आवै॥
हाथी चंचल होय समर में सूँड़ि उठावै।
घोड़ा चंचल होय झपटि मैदान देखावै॥
हैं ये चारों चंचल भले राजा पंडित गज तुरी।
बैताल कहै बिक्रम सुनो तिरिया चंचल अति बुरी॥४॥
दया चट्ट ह्वै गई धरम धँसि गयो धरन में।
पुन्य गयो पाताल पाप भो बरन बरन में॥
राजा करै न न्याय प्रजा की होत खुवारी।
घर घर में बेपीर दुखित भे सब नर नारी॥
अब उलटि दान गजपति सँगै सील सँतोष कितै गयो।
बैताल कहै विक्रम सुनो यह कलजुग परगट भयो॥५॥
मर्द सीस पर नवै मर्द बोली पहिचानै।
मर्द खिलावै खाय मर्द चिन्ता नहि मानै॥
मर्द देय औ लेय मर्द को मर्द बचावै।
गाढ़े सँकरे काम मर्द के मर्दैं आबे॥
पुनि मर्द उनहि को जानिये दुःख सुख साथी दर्द के।
बैताल कहै विक्रम सुनो लच्छन हैं ये मर्द के॥६॥
चोर चुप्प ह्वै रहै रैन अँधियारी पाये।
संत चुप्प ह्वै रहै मढ़ी में ध्यान लगाये॥
बधिक चुप्प ह्वै रहै फाँसि पंछी लै आवै।
बैल चुप्प ह्वै रहै सेज पर तिरिया पावै॥