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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४०१

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कविता-कौमुदी
 

नारिन की जु सलाह करै भरु भाइन मंत्री स्वतंत्र बनावै।
बैर के चाकर राखे रहै और अधर्म की राह सदा मन लावै॥
मंत्री कह्यो हित मानै नहीं अरु साह को सासन नाम न आवै।
भाखत हैं बिसुनाथ ध्रुवै कछु काल में भूप सुराज गँवावै॥३॥
झूठी सुनै तहक़ीक़ करै नहिं ओछेन संगति में मन लावै।
रीझ पचाय डरे रन को बिसना जु अठारहौ खूब बढ़ावै॥
ठट्ठा में प्रीति कुपात्र में दान कबीन हुँ जान गुमान जनावै।
भाखत हैं बिसुनाथ ध्रुवै अस भूपति ना कबहूँ जस पावै॥४॥
चाकर दै धन बाँचे जाई अठयों तिहि भागहि धर्म लगावै।
साह लिये धरै सातयोँ भाग छठे सुता ब्याह हितै रखवावै॥
पाँचएँ वित्त बढ़ै धरि चोथ्यहि तीन ते ख़र्च करै छ बढ़ावै।
भाखत हैं बिसुनाथ ध्रुवै तेहि भूपति भौन न दारिद आवै॥५॥
भाइन भृत्यन विष्णु सो रैयत भानु सो सत्रुन काल सो भावै।
सत्रु बली से बचै करि बुद्धि औ अस्त्रौं धर्महि नीति चलावै॥
जीतन को करे केते उपाय औ दीरघ दृष्टि सबै फल पावै।
भाखत हैं बिसुनाथ ध्रुवै नृप सो कबहुँ नहिँ राज गँवाबै॥६॥
होय नहीं कबहूँ बस काहु समै सब में निज भाव जनावै।
राखै रहैं हुकुमैं सब पै कहुँ मित्र बनाय न तेज गँवावै॥
साम औ दाम औ दंड औ भेद की रीति करै जु सबै मन भावै।
भाखत हैं बिसुनाथ ध्रुवै कला-षोड़सौ भूपति राज बढ़ावै॥७॥
जो हरिआह्निक में मन लाय करै नृप आह्निकहू स्मृति भावै।
मानै अहै प्रभु को सब है प्रभु रूप सबै निज किंकर भावै॥
देह ते आपुहि भिन्न गने करि सासन भक्ति प्रजान चलावै।
भाखत हैं बिसुनाथ ध्रुवै दोउ लोक मैं भूपति सो सुख पावै॥८॥