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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४१०

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शिवसिंह सेंगर
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(ध्रुपद राग, पर्ज ताल, चौताल)

आली री अनंग अंग जनु धारे बनमाली ठाढ़ो है निकुंज
मध्य प्यारी री। गल सोहै मोती माल, केसर को तिलक
भाल मोर पंख सीस मानो चन्द्र की पत्यारी री॥ पीत बसन
लसित अंग सरसित सुखमा सुढंग जलधर ज्यों लीन्यों
विद्युत अलोल संग वंसी रवित मंजु अधर सुरस धारि
रनधीर लेतो है अनंत तान न्यारी री॥

भूषण कौमुदी—यह ग्रंथ सं॰ १९१७ वि० में बना। इस ग्रंथ में महाराज जसवंत सिंह के भाषा-भूषण नामक ग्रंथ पर टीका लिखी गई है। टीका अच्छी है। इस ग्रंथ के प्रारंभ का तीसरा छंद इस प्रकार है:—

मंजुल सुरंगवर शोभित अचिंत चारु फल मकरंद कर
मोदित करन हैं। प्रमित विराग ज्ञान केसर सरस देस
विरद असेस जसु पांसु प्रसरन हैं। सेवित नृदेव मुनि मधुप
समाज ही के रनधीर ख्यात द्रुत दच्छिन भरत हैं। ईस
हृदि मानस प्रकासित सहाई लसैं अमल सरोजवर स्यामा के
चरन हैं॥


 

शिवसिंह सेंगर

शिवसिंह सेंगर जिला उन्नाव में काँथा ग्राम के निवासी थे। इनके पिता ज़मीदार थे और उनका नाम रणजीतसिंह था। इनका जन्म स॰ १८७८ में हुआ। ये पुलीस के इन्सपेकृर थे। काव्य में अधिक रुचि होने के कारण इन्होंने हिन्दी, संस्कृत और फ़ारसी की बहुत सी पुस्तकें इकट्ठी की थीँ।