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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४१४

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रघुराज सिंह
३५९
 

कोमल बोलै कठोरो कहै किये येकहू सेवा सतै करि मानत।
वाके सबै अपकार बिसारि निजै चितमें उपकारहिं आनत॥
जोई कहै करै सोई सदा द्विजको निजदेवता सौँ जिय ठानत॥
दीनन दान मुनीशन मान अरीन कृपानको देइवो जानत॥५॥
कंचम दानमें मेरु डरै गजदान में गोवति गौरी गजानन।
दान तुरंगको देखि दिवाकर दाहिन बामह्नै जात दिशानन॥
दान महीके महीके महीपति त्रासित जीके विलोकत कानन।
हेरि कुशा हरिके करमें डरतो त्रयलोक करै चतुरानन॥६॥
माधुरी माधवकी वह मूरत्ति देखतहीँ दृग देखे बनेरी॥
तीनिहूँ लोक की जो रुचिराई सुहाई अहै तिनहीं के घनेरी॥
सोभा शचीपति औ रति के पति की कछु आई न मेरे भनैरी।
हेरि मैं हारयों हिये उपमा छविहू छविपाई विराजित नैरी॥७॥
ब्रजमें जेहिके मुरली ध्वनिको सुनिकै यह कौतुक होत भयो।
परिवार बिसारि हिये हरिधारि सुगोपिका छोडि अवास दयो॥
कर नूपुर कंकन पाँयनमें कटि किंकिणीको करि हारु लयो।
नंदनंदन के ढिगकोयों गई सरितागण सागरको ज्यों गयो॥८॥
मुख देखतही मनमोहनको अतिसोहन जोहन लागी जबै।
नहिं नैन हिलै नहिं बैन चलै नहिं धाय मिलै नहिं शीश नवै॥
ब्रजबालन हाल लख्यो असलाल उताल कियो उरमाल तबै।
रसरात विलासमें हास हुलाससों पूरणकै दिय आशसबै॥१॥
मथुराके मनोहर मारगमें मुरली घरे मंडित ग्वालनसोँ।
लखि कूबरी माहितदै अँगराग चह्यो मिलिबो हठि लालनसों॥
अतिरूप, अनूप भयो तेहिको भई पूजित देवन बालनसों।
रति रंभा रमा सुख दुर्लभ जो छनही में दिखेतेहि ख्यालनसों॥१०॥
कल किशलय कोमल कमल पदतल सम नहिं पाँय।
थक सोजत पियरात नित यक सकुचत झरि जाँय॥१॥