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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४१५

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कविता-कौमुदी
 

विलसति यदुपति नखनितति अनुपम द्युति दरशाति।
उडुपति युत उडु अवलि लखि सकुचि सकुचिदुरिजाति॥२॥
सविता दुहिता श्यामता सुरसरिता नख ज्योति।
सुतल अरुणता भारती चरण त्रिवेणी होति॥३॥
गुलुफ गुलुफ खोलनि हृदय हो तौ उपमा तूल।
ज्यी इंदीवर तट असित द्वै गुलाब के फूल॥४॥
लाली येंडी लालकी अति अनुपम दरशाहिं।
कामबागकी नारँगी सम कहि कवि सकुचाहिं॥५॥
चारु चरणकी आँगुरी मो पै वरणि न जाइ।
कमलकोशकी पाँखुरी पेखत जिनहिं लजाइ॥६॥
अहि अनुपम कहि जाति नहि युगल जंघकी ज्योति॥
जिनहिं जोहि कलकलभ की शुंड कुंडलित होता॥७॥
युगल जानु यदुराज की जोहि सुकवि रसहीन॥
कहत मार शृंगारके संपुट द्वै रचि दीन॥८॥
उरू सलोने श्याम के निरखत टरत न नैन॥
जैतखंभ शृंगारके मानहुँ विरच्यो मैन॥९॥
यदुपति कटिकी चारुता को करि सकै बखान॥
जासु सुछवि लखि सकुचि हरि रहत दरीन दुरान॥१०॥
पद्मनाभके नाभिकी सुखमा सुठि सरसाय॥
निरखि भानुजा धारको भ्रमि भ्रमि भवँर भुलाय॥११॥
लली कान्ह रोमावली भली बनी छवि छाय॥
मनहुँ काम शृंगारकी दीन्हीं लीक खँचाइ॥१२॥
वर दामोदरको उदर जेहि नहि समता पाइ॥
नवल अमल बल दल सुदल डोलत रहत लजाइ॥१३॥
उर अनुपम उनको लसै सुखमा को अति ठाट॥
मनहुँ सुछबि हिय भरि भये काम शृंगार कपाट॥१४॥